कृषि संशोधन बिल 2020

 कितने ही शब्दों  और मशीनों का  अविष्कार हो जाए, किंतु व्यक्ति ही सर्वोच्च है । उसकी मानसिकता ही सर्वोच्च है । कृषि संशोधन बिल सही है या गलत है, यह सटीक रूप से कहना  निरर्थक है । विश्व में दो प्रकार की विचारधारा समानांतर कार्य करती हैं, एक है पूंजीवादी विचारधारा और दूसरी है समाजवादी विचारधारा । यह दोनों परस्पर विरोधाभासी हैं  । यह  बिल भी इन दोनों विचारधाराओं के आधार पर मापा जा रहा है । पूंजीवादी सोच इसे सही ठहरा सकती है, किंतु समाजवादी सोच इसे अन्यायपूर्ण ही कहेगी । किंतु यह आज का ही विषय नहीं है ।  उद्योगपति जगत और सामान्य जनता हमेशा से ही एक दूसरे के विरोध में रही है, किंतु न्याय का सिद्धांत हमेशा जनता के पक्ष में रहा है । कारण है,  इससे धनी व्यक्ति और अधिक धनी और  गरीब व्यक्ति और अधिक गरीब  होकर समाज में एक वर्ग खाई को जन्म देता है, जो न्याय के सिद्धांत और मानवीयता   के विरुद्ध है । यहां विवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है ।

यद्यपि किसी कानून के संदर्भ में ऐसा ही देखा जाता है कि क्या वह संविधान के अनुकूल है ।  क्या वह देश के वित्तीय दृष्टिकोण के लिए उचित है । क्या वह समाज के लिए न्याय संगत हैं । यह मूल भाव है, जो कानून के निर्माण के अंत: में होने चाहिए । यद्यपि इस कृषि कानून के संबंध में संविधान के  अनुसार  है या नहीं, इस पर प्रश्न उठता रहा है । कारण है, संविधान में कुछ विषय केंद्र के द्वारा, कुछ विषय राज्य के द्वारा, कुछ विषय समवर्ती सूची, जो केंद्र को विशेषाधिकार देती है, के अंतर्गत आते हैं । सामान्य रूप से कृषि का विषय राज्य का विषय है । और इस पर कानून बनाने का अधिकार राज्य का है । लेकिन केंद्र  द्वारा  अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए इस पर कानून  लाया गया और राज्यों की ताकत को छीना गया है । अगर यह कानून न्याय संगत सिद्ध नहीं होता है, तो अवश्य ही केंद्र सरकार के द्वारा  अपने अधिकार का दुरुपयोग और संविधान में रही कमियों का विशेष लाभ  लेना होगा । इस प्रकार की व्यवस्था स्थापित  होना बहुत उचित नहीं कहा जा सकता । दूसरी  ओर यह विषय केंद्र सरकार की मानसिकता पर पूरा निर्भर करता है, किंतु सरकार   इस कृषि संशोधन बिल 2020 के  ज्यादा पक्ष में है । इसीलिए यह  करोना काल के दौरान जबकि संसदीय व्यवस्था ठीक से कार्य नहीं कर रही थी और लोग भी एक भय युक्त वातावरण में जी रहे थे, तब सरकार इस बिल को लेकर आई जिसे ध्वनिमत से ही पास कर दिया गया । यह एक विषय है जो विपक्ष के द्वारा आपत्तिजनक कहा गया  । यह केंद्र सरकार का आपदा में अवसर  निर्माण का विषय हो सकता है,  किंतु महत्वपूर्ण है कि ऐसा  अवसर पूंजीवाद और समाजवाद किसके हित का समर्थन करता है ।

गए गए बिल का पहला संशोधन द फार्मर फार्मर  प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन)  2020 के द्वारा यह व्यवस्था की गई है, कि किसान एपीएमसी के बाहर भी अपना उत्पाद बेच सकते हैं । यह व्यवस्था किसानों को एक वृहत बाजार उपलब्ध करवाती है । सामान्य सोच इस प्रतिस्पर्धा को अन्य गैर कृषि प्रतिस्पर्धा के समानांतर रखते हुए समर्थन अवश्य कर सकती है । भारत जैसे देश में जहां एक और 60% व्यक्ति कृषि से जुड़े हैं दूसरी और कुपोषण का स्तर वृहत रूप  से पनपा हुआ है जिसका मात्र कारण है कि भारत की सरकारी वितरण व्यवस्था भ्रष्ट रही है । जहां भूख का मुख्य उपाय शाकाहार अर्थात कृषि है । जहां व्यक्ति गरीबी के आंकड़ों को निरंतर दर्शा रहा है । ऐसी स्थिति में गेहूं और चावल जैसे उत्पाद “बाजार” व्यवस्था के अधीन नहीं करने चाहिए । यह भारत जैसे निम्न विकासशील देश के लिए आत्मघाती जैसा होगा । भूख प्रतिस्पर्धा का विषय नहीं है । यह सभी की मूलभूत आवश्यकता है । इस क्षेत्र में सरकार को न्याय संगत तरीके से आगे आकर अपनी भूमिका निभानी चाहिए । जैसे एपीएमसी के माध्यम से सरकार ने भूतकाल में सार्थक कदम उठाए थे । भारत का इतिहास और पृष्ठभूमि को अगर देखा जाए तो प्रारंभ में किसान और महाजन की व्यवस्था का अध्ययन उचित होगा । इसी दुष्चक्र से बाहर लाने के लिए पूर्व सरकार ने एपीएमसी की व्यवस्था की थी । एपीएमसी के आने से पहले भी भारत में कृषि उत्पाद के लिए खुला बाजार मौजूद था, जोकि की किसानों की दयनीय अवस्था का कारण था ।

लाए गए बिल का दूसरा संशोधन फार्मर (एंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विस कानून 2020 है, इसके द्वारा यह व्यवस्था की गई है किसान संविदा खेती कर सकता है । ऐसी संविदा हेतु एक पक्ष किसानों का होगा दूसरा पक्ष बड़े उद्योगपति वर्ग का होगा । इस व्यवस्था का सबसे बड़ा  दोष यह है किसान अशिक्षित है । किसान कानूनी  पेचिदगी नहीं समझ सकता । संविदा करने में लगभग समर्थ नहीं है । भारत को चाहिए कि इन व्यवस्थाओं  की जगह किसानों की शिक्षा पर ध्यान दिया जाए, ना कि पूंजीवादी  सोच को प्रोत्साहन हेतु अंगूठा संविदा को लाया जाए । पहले अंगूठे को हस्ताक्षर तक लाने का प्रयास किया जाए । फिर औद्योगिकीकरण जैसे अमूलभूत व्यवस्था को बढ़ाएं । क्योंकि यह फिर से दो वर्गों के बीच असमानता कि खाई पैदा करेगा । दूसरी ओर इस संविदा के दो पक्ष किसान और स्पॉन्सर्स अर्थात कॉरपोरेट्स  सेक्टर होंगे । यह दोनों पक्ष कृषि उत्पाद की खरीद- बेच के साथ-साथ उस से जुड़े विषय पर भी संविदा पर आ सकते हैं । जैसे वित्त, सिंचाई के साधन, खाद, कीटनाशक, बीज, सलाह आदि से जुड़े संविदा भी हो सकते हैं  । इस व्यवस्था में कृषि भूमि के लिए किसी भी प्रकार की संविदा पर प्रतिबंध है, किंतु यह अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय कृषि की स्वतंत्रता को खत्म करके उसे जमीदारी व्यवस्था में परिवर्तित करने में सक्षम है । इससे भारतीय किसान का सुविधाओं के लिए कॉर्पोरेट सेक्टर की चुंगल में फस जाने के बाद बाहर आना  मुश्किल होगा । यह कुचक्र की भांति होगा, जहां किसान खाद साधनों की व्यवस्था कॉर्पोरेट सेक्टर से वित्त के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से करेगा । फिर अपनी फसल के धन से भुगतान करेगा । क्या यह वह व्यवस्था नहीं है जहां जमीदार किसानों को धन उधार देकर  बाद में खेत पर आकर उसकी फसल  को बेचकर अपनी वसूली करता था । किसान को इसी कुचक्र से बाहर निकालने के लिए एपीएमसी की व्यवस्था की गई । जो इन कॉरपोरेट सेक्टर के  आने से कुछ सालों में खत्म हो जाएगी । यह किसानों की भूमि का अप्रत्यक्ष कब्जा सिद्ध होगा । आगे सरकार एक व्यवस्था और करती है की किसान अकेले अगर संविदा ना कर सके तो मिलकर (एग्रीगेटर) संस्था के रूप में कॉर्पोरेट सेक्टर से खेती संविदा में आ सकते हैं । यह संस्था किसानों की फसलों को खरीदेगी और  कॉर्पोरेट सेक्टर को बेचने का कॉन्ट्रैक्ट करेगी ।  एपीएमसी में भी यही होता है वह किसानों को मार्केट उपलब्ध कराती है, जहां डायरेक्ट रिटेलर्स के पास माल पहुंचता है । यहां इस एक्ट के द्वारा एक ओर एपीएमसी एग्रीगेटर से प्रतिस्थापित हो जाएंगी । दूसरी ओर वितरण व्यवस्था में कॉर्पोरेट सेक्टर एक हिस्सा बन जाएगा, जो कि महत्वपूर्ण रूप से सप्लाई को प्रभावित करेगी । और बेवजह इस कड़ी का हिस्सा होकर लाभ कमाएगी । किसी भी व्यवस्था में शामिल होना गलत नहीं है किंतु पूंजीपति वर्ग को वितरण अवस्था का जबरन हिस्सा बनाया जाना विश्वसनीयता का विषय है ।

 लाए गए बिल का तीसरा संशोधन एसेंशियल कमोडिटी (अमेंडमेंट) कानून 2020 है, इसके अनुसार महत्वपूर्ण खाद्यान्नों का असीमित भंडारण किया जा सकता है । 1955 में तात्कालिक प्रधानमंत्री द्वारा सामान्य लोगों को जब खाद्यान् उपलब्ध नहीं हो रहा था । दूसरी ओर पूंजीपति इन उत्पादों को भंडारित कर रहे थे । इस चक्र को तोड़ने के लिए  कुछ  उत्पादों का भंडारण नहीं किया जा सकता,  ऐसी व्यवस्था की गई । जिसका परिणाम सुखद रहा । आज भी व्यवस्था कमोबेश वैसी ही है । आज भी  भंडारण व्यवस्था पूंजीपति के हाथ में पहुंचते ही आपूर्ति घटाकर कीमत बढ़ा दी जाएंगी  । यह सबसे महत्वपूर्ण बिल है  जिसके द्वारा भारत का प्रत्येक नागरिक प्रभावित होने वाला है ।

यद्यपि कृषि और गैर कृषि उत्पादों को समान श्रेणी में नहीं रखा जा सकता जैसी मृत्यु पर राजनीति नहीं की जाती । यह आदर्श वाक्य है ।

कृषि, महत्वपूर्ण रूप से गेहूं- चावल इत्यादि  इन्हें डिमांड सप्लाई के नियमों से बाहर रखा जाना चाहिए, अन्यथा न्याय संगत कीमत तय नहीं होंगी । और सत्य तो यह है कि कृषि क्षेत्र में मांग- आपूर्ति नियम लागू ही नहीं होगा क्योंकि भूख तो निर्धारित है ही । वह अधिक या कम नहीं होगी । अतः केवल सप्लाई को नियंत्रित करके कीमतों को बढ़ाया जाएगा । स्वाभाविक है कि मांग आपूर्ति नियम की व्यवस्था के द्वारा कृषि को संचालित ही नहीं किया जा सकता । इन  मिली जुली व्यवस्थाओं के द्वारा कॉर्पोरेट सेक्टर खाद्यान्न वितरण अवस्था में उभर कर सामने आएगा ।

 सप्लाई को नियंत्रण में करेगा ।  महत्वपूर्ण यह है कि मांग आपूर्ति नियम से किमती जो भी तय होती हैं वह उचित होती हैं,  किंतु इस नियम में दोनों पक्षों का प्रभावी होना आवश्यक है । गैर कृषि उत्पादों के लिए उचित है । अतः कृषि उत्पाद जहां मांग कम या ज्यादा नहीं की जा सकती, के लिए उचित नहीं है ।

उपरोक्त  चर्चा में कृषि संशोधन बिल  को  वापस लेकर कृषि सुधार हेतु दो महत्वपूर्ण कार्य किए जा सकते हैं ।

पहला की एपीएमसी में व्याप्त भ्रष्टाचार और एफसीआई  में व्याप्त भ्रष्टाचार को इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी से जोड़कर खत्म किया जाए, ऑनलाइन खरीद की व्यवस्था की जाए । जिस तरह से आयकर विभाग के द्वारा ऑनलाइन एसेसमेंट को लाकर व्यवस्था की है, उसी तरह इन सरकारी विभागों को भी इस प्रवृत्ति की ओर आगे बढ़ना चाहिए ।

दूसरा यद्यपि पुरानी सरकारों के द्वारा  एमएसपी को कानून नहीं बनाया गया है, किंतु इस सरकार को आगे आकर इस हेतु कानून बनाना चाहिए । क्योंकि पिछली सरकारों के द्वारा भी अनेक कानून बने हैं, और बनते रहेंगे ।  यह कानून ना बनाने का कोई आधार नहीं है की पहली सरकार ने कानून नहीं बनाए ।

दूसरी ओर अगर यह कानून वापस  नहीं होते हैं तो लेखिका का व्यक्तिगत मत है कि  इन्हें  संशोधित करके लाया जाए प्रस्तावित संशोधन निम्न है-

 सरकार  कानूनी रूप से इस एक्ट में व्यवस्था करें कि एपीएमसी खत्म नहीं होगी, जिस दिन से एपीएमसी खत्म होगी उसी दिन से यह  कानून रद्द  माना जाएगा ।

 गेहूं चावल को संविदा खेती से अलग रखा जाए ।

 एसेंशियल कॉमेडीटी अमेंडमेंट एक्ट 2020 को पूर्ण रूप से हटाया जाए ।

पूजा आर झेरीवाल

अलवर राजस्‍थान