चाय की प्‍याली में स्‍वाद, जीवन में गमों का तूफान

चाय बगानों की स्थिति हुई बेहतर, पर मजदूर आज भी गुलामों की तरह

आदिवासी दिवस का कार्यक्रम सिर्फ छलवा, संवेदनाओं पर चल रहा जीवन

''दुनियां के सबसे बेहतर चाय बगानों में दार्जिलिंग है। चाय दुनियां के सबसे बेहतरीन पेयपदार्थ में स्‍वास्‍थ्‍य वर्धक मानी भी जाती है। परंतु चाय की प्‍याली स्‍वाद भरने वाले चाय बगान के मजदूर की दशा आज भी गमों के दौर से गुजर रही है। आजादी के बाद आज भी चाय बगान में काम करने वाले आदिवासी आज भी अपने जीवन के जंग को बड़े ही दर्द भरे लमहों में जी रहे हैं।मैं एक चाय बगान की आदिवासी होने के नाते हमारे चाय बगानों के माता-पिता, भाई-बहनों के आने वाले सुंदर भविष्य की कामना करती हूँ कि हमारे चाय -श्रमिकों की जितनी भी मांगे हैं वे जल्द से जल्द पूरी हों। ''

चाय मजदूरों के लिए चाय का पौधा संजीवनी-बूटी से कम नहीं है। ये चाय के पत्तों से बनी चाय पीते, इसके फूल, बीज खाते और भोजन बनाते समय इसी लकड़ी का प्रयोग और लकड़ी के जल कर राख होने के बाद बर्तन मांजने के लिए इसका उपयोग करते। इस क्षेत्र से जुड़े पुरुष एवं महिलाओं की आर्थिक एवं शारीरिक स्थिति बहुत ही तंग है, फिर भी ये अपने बदलते भविष्य की आशा लिए अपने कर्ममय जीवन में व्यस्त हैं। सिर्फ वर्तमान की चिंता में अपना जीवन व्यतीत करने वाले ये बंधुआ मजदूर से अधिक कुछ नहीं है। हलांक‍ि 9 को अगस्त विश्व आदिवासी दिवस है जो सिर्फ संवेदना भरे भाषणों और रैलियों तक सीमित हो कर रहा गया है। जबक‍ि इनके जीवन चातुर्दिक विकास की बातें तो होती जरूर है पर इनका वास्‍तविक जीवन आज भी दर्द की संवेदनाओं से भरा है।  जल, जंगल, पेड़, पौधे, पशु, पक्षी, कंद, मूल, नदी, नाले, झरने, उंचें उंचे पहाड़ों की वादियां में शुद्ध हवाओं में जीने वाले जुड़े आदिवासियों का जीवन बहुत ही सहज एवं सरल है। भारत की जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत (10 करोड़) जितना एक बड़ा हिस्सा आदिवासियों का है। वैसे तो भारत के प्रत्येक राज्य में आप आदिवासियों को मेहनत, मजदूरी करते हुए देखते हैं। लेकिन आज पश्चिम बंगाल के चाय बगानों में अपना जीवन यापन कर रहे आदिवासी चाय श्रमिकों की जीवन शैली दशा और दिशा दोनों ही खराब है। पश्चिम बंगाल के चाय बगानों में, जो दुनियां की सबसे बेहतरीन चाय में दार्जिलिंग के अलावा जलपाईगुड़ी एवं अलीपुरद्वार जिले में विस्‍तार है। इनको हम पहाड़, तराई तथा डुवार्स के नाम से जानते हैं।  लगभग 166 सालों से बसे चाय श्रमिकों का जीवन आज भी जस का तस है। वास्तव में चाय की खेती करने के लिए छत्तीसगढ़ एवं झारखंड से लाखों की संख्या में आदिवासी मजदूरों को लाया गया था। लेकिन निर्धनता, अशिक्षा, मजबूरी और अनेक कारणों से ये मजदूर अपने घर वापस जा न सके और इन्हीं चाय बगानों में आजीवन यहीं के हो कर रह गए। 2009-2010 में किए गए सर्वे के अनुसार पहाड़, तराई और डुवार्स क्षेत्र में कुल 276 चाय के बगान होना बताया गया है।  वर्तमान में चाय श्रमिकों को मजदूरी के रूप में 167-176 रुपये प्रतिदिन मिलता है। इतनी कम आमदनी में वे कैसे अपने परिवार का भरण - पोषण करते हैं, ये केवल वही बता पाएंगे। कभी-कभी तो हालात इससे भी बुरे हो जाते हैं, जब चाय बगानों के मालिक मजदूरों को बिना वेतन के काम करवाते हैं या बिना मजदूरी दिए फैक्टरियों पर ताला लगा कर भाग जाते हैं। मजदूरों के परिश्रम से ही मालिकों को करोड़ों के मुनाफे होते हैं, पर इनके बच्चों को दाने-दाने को मोहताज होना पड़ता है। यही वजह है कि इन क्षेत्रों के अधिकांश बच्चे कुपोषण के शिकार होते हैं।  आदिवासी चाय श्रमिक 1855 से 60 से पश्चिम बंगाल में बसे हुए हैं। एक ही स्थान पर काम करने एवं बसने की अवधि 2020 तक लगभग 160 - 166 वर्ष हो गया है। अपने मौलिक अधिकारों से वंचित पिछले 10-12 वर्षों से अपने आवसीय भूमि पर मालिकाना हक मांग रहे हैं, लेकिन उनके हाथों सरकार द्वारा निराशा ही मिलती है। दिन भर आठ-आठ घंटों तक खड़े होकर, कड़ी धूप, वर्षा, ठंड सहकर जैसे-तैसे टपकते छत के नीचे ये अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पी.एफ., पेंशन के नाम पर भी इनकी मजदूरी का जोड़-घटाव होता है।

आशा एवं शुभकामना के साथ 'जय जोहर'।  

लेखिका एक चाय बगान के मजूदर की बेटी हैं

प्रफुल्ला मिंज

शिक्षिका