एक मानवीय दृष्टिकोण हो मजदूरों से...

मजदूर अध्ययन

देश में कोरोना संकट को लेकर हुई परेशनी का सबब हम सभी को याद है। प्रवासी मजदूरोंद्र की भावनाओं को समझने की कोशिश किसी ने नहीं की। यहीं कारण रहा कि, उस दौरान मजदूर सड़क पर था। अगर समानता और मानवीय दृष्टिकोण सही होता तो ना मजदूर सड़क पर होता, ना ही कंपनियों को आज उपने व्‍यापार को ठप करने की नौबत आती। ऐसा नहीं सिर्फ मजदूरों को परेशानी हुई, आज मजदूरों की उस समय की दशा को सही समय से भांप लिया होता तो शायद आज इंडस्‍ट्रीज को बंद करने या एक शिफ्ट में चलाने की नौबत नहीं आती...। लेखिका पेशे से चार्टेड एकांउंटेट है, परंतु सामाजिक सरोकार और मजदूर के पलायन से हुई विवशता को बता रही।

प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक समस्याएं आती हैं, ताकि वह अपना विश्लेषण कर सुधार की दिशा में बढ़ सके l कभी-कभी समस्याएं सार्वजनिक रूप से आती है l और वर्तमान में विश्व जिस समस्या के सामने विवश दिखाई दे रहा है वह भी एक ऐसी ही समस्या है जो संपूर्ण मानव जाति को विश्लेषण करने के लिए प्रेरित कर रही है l मनुष्य  सृष्टि का एकमात्र प्राणी है जो प्रबुद्धता रखता है और यह आधार उसको श्रेष्ठता का  जीवन व्यतीत करने का अधिकार देता है l श्रेष्ठता क्या है, यह विस्तृत तथ्य हो सकता है l किंतु मूलभूत अभावों से ग्रस्त ना होना ही इसका प्रारंभ है l यह प्रस्तावना दार्शनिक हो सकती है किंतु इसके आधार पर वास्तविकता में जाना सही विश्लेषण और समाधान प्रस्तुत करेगा।

 मनुष्य जीवन उपार्जन के लिए मूलभूत आवश्यकता धन की है। समस्त विश्व के लिए धन एक धुरी है जिसके चारों ओर प्राणी चक्कर लगा रहा है। अन्य विषय भी है किंतु मूलभूत और जागृत विषय धन ही है। क्योंकि मनुष्य को जन्म लेते ही भूख का समाधान चाहिए, ज्ञान या शक्ति या कोई अन्य रस नहीं । और मनुष्य को अंतिम अवस्था तक भी भूख का समाधान ही चाहिए। तो मनुष्य को इस  धन रूपी व्यवस्था से सामना  तो करना होगा। मनुष्य की उत्पत्ति से लेकर कई हजार वर्षों की यात्रा के बाद आज इतना विकास किया जा चुका है कि मनुष्य श्रेष्ठ जीवन जी सकता है। किसी भी देश की अर्थव्यवस्था यह सुनिश्चित करेगी कि मूलभूत आवश्यकता हेतु साधन उपलब्ध है। आज किसी भी देश को नष्ट करने के लिए जैविक हथियार विकसित करने जैसी सोच विकसित हो रही है, किंतु एक रूढ़ीवादी सोच जोकि सटीक है, वह है कि किसी देश की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाने  से वह देश खत्म है।  कारण की नागरिक का आर्थिक आधार ही उसकी मूलभूत आवश्यकता है। मनुष्य इतिहास हजारों वर्षों का हो सकता है किंतु भारत की स्वतंत्रता का इतिहास मात्र 75 वर्ष पुराना है। इन वर्षों में भारत में जो ज्ञान प्राप्त किया है, जो नियम, संविधान, दंड व्यवस्था, आर्थिक सिद्धांत तय किए हैं, वह अद्भुत हैl यह प्रशंसनीय है। किंतु दुखद विषय है कि आर्थिक विषमता की गहरी खाई ।

उपरोक्त संपूर्ण प्रस्तावना  इस  खाई तक पहुंचने के लिए थी। इस विषमता के अनेक कारण हैं, किंतु मुख्य कारण है भ्रष्ट व्यवस्था या आचरण। भ्रष्ट तंत्र जहां नियमों के विरुद्ध कार्य पर कोई दंड प्रावधान नहीं चलाया जाता।

 अगर वर्तमान समय की चर्चा की जाए आज पूरा देश सड़कों पर देखा गया। यह हलचल आजादी के बाद की हलचल से भी बड़ी हलचल थी।  किस तरह लोग गरीबी और अभाव से ग्रस्त है , यह जमीनी सच्चाई का प्रदर्शन इस समय मनुष्य और देश की कर्तव्य हीनता का परिचय बना।  पहले भी प्रश्न पुस्तकों में उठे , लेकिन  वह शब्द मात्र थे जो  विवाद का मुद्दा बने। आज हर व्यक्ति ने यह नग्न दृश्य देखा। अब इसका विश्लेषण तो होगा। जो लोग इस सृष्टि पर भूख रूपी अग्नि को शांत करने हेतु  जन्मे हैं वह इसे अन्यथा ले सकते हैं। इस गरीबी और अभाव का कारण तो फिर बाद में विचारा जाएगा। वर्तमान में प्रशन है कि गरीबी और अभावग्रस्त मनुष्य के लिए दंड की व्यवस्था। जो देश के द्वारा सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित है। क्योंकि ना इन लोगों को सम्मान प्राप्त है, ना इनके शब्दों को, समस्या को समझा गया। इसके साथ ही भारत के हर तंत्र की कमी सामने आई। और इस विश्लेषण के दो ही आधार हैं कारण और समाधान।

भारत एक जनतांत्रिक देश है जिसमें जनता के द्वारा शासन करने हेतु मानदेय पर कुछ व्यक्तियों को रखा जाता है। अतः जनता शासक है, और मंत्री आदि नौकर व्यवस्था के हिस्सा। जनतांत्रिक व्यवस्था कहती हैं कि अगर कोई व्यक्ति असंवैधानिक कार्य करता है तो उसके लिए दंड विधान मानवीयता के आधार पर उचित है। किंतु कोई बड़ा समूह ऐसा कार्य करता है तो उसका समाधान दंड नहीं है। अर्थात आप उस समूह विशेष से  चर्चा के आधार पर समाधान निकालें और अगर मंत्री ऐसा करने में असमर्थ हैं तो अपना पद छोड़ दें। एक व्यक्ति को जेल में डाल सकते हैं, शारीरिक रूप से दंड दे सकते हो किंतु समूह के साथ आप ऐसा नहीं कर सकते। यही जनतंत्र की भावना का आधार है।

मजदूर वर्ग जोकि देश में किसान वर्ग के लिए बराबर हिस्सेदारी रखता है, उस पर सार्वजनिक रूप से डंडे चलाना यह उन मजदूरों का अपमान तो अवश्य है ही, किंतु वैश्विक व मानवीय स्तर पर देश के लिए लज्जा का विषय भी है। वर्तमान में देश के तंत्र के द्वारा दूरदृष्टि का उपयोग ना करते हुए जो निर्णय लिए गए हैं उस वजह से हैं सड़कों पर यह अव्यवस्था दिखाई दी है। भारत का सौभाग्य रहा कि 4 माह बाद बीमारी भारत तक आई किंतु इस समय का उपयोग नहीं किया गया लापरवाही की गई। अन्यथा मजदूर वर्ग को अपने राज्य पहुंचाने हेतु  सार्वजनिक घोषणा तथा व्यवस्था का प्रावधान करना सरकार तंत्र का कार्य था। अपने निर्णय के कारण विफलता और  दंड मजदूर वर्ग को मिलना फिर से लज्जा का विषय है।

भारत के पास करने हेतु बहुत कुछ है जो आधारभूत व्यवस्था से जुड़ा है, लेकिन भारत विलासिता और अन्य देशों से प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में शामिल होकर आर्थिक विषमता की खाई को गहरी करता जा रहा है ।

 भारत में आज भी अशिक्षा चरम पर है, किंतु ई टिकट का प्रावधान भारत में  जोरों पर है। इलेक्ट्रॉनिक व्यवस्था को प्रयोग करना गलत नहीं है किंतु इससे पूर्व शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। आज वह  मजदूर जिनके लिए  ई टिकट की घोषणा की, वह ठगे से रह गए।  दलालों के माध्यम से ई टिकट खरीदने पड़े l मजदूर वर्ग इस अव्यवस्था के सामने स्वयं को कमजोर महसूस कर रहे थे। किंतु यह शर्म उनकी नहीं है देश के लिए लज्जा का विषय है l वह अपनी आबादी को शिक्षित नहीं कर सका। आज कई मंत्री अंग्रेजी भाषा में भाषण देने में असमर्थ है, क्योंकि वह पढ़े-लिखे नहीं है, यह कम पढ़े लिखे हैं। कमी को छुपाने के लिए वह देसी अपनाओ इस आधार पर हिंदी को अपनाते हैं, किंतु मजदूरों के सामने  ई टिकट की घोषणा करते हैं। शर्म हिंदी बोलने में नहीं है और e-ticket को  अपनाना भी श्रेष्ठता है। किंतु आधारभूतता को ध्यान में रखते हुए देश को शिक्षित करना जरूरी है।  तब ही वह इलेक्ट्रॉनिक माध्यम को समझ पाएगा ।

 यह एक सामान्य घटना है कि जब युद्ध होते हैं या कोई आपदा आती है तो कुछ लोग उनसे ही प्राप्त करने का अवसर तलाशते हैं। विज्ञान शास्त्र की तरह एक शास्त्र है ज्योतिष शास्त्र। यह इन व्यक्तियों की श्रेणी निर्धारित करता है चांडाल प्रवृत्ति। यह सामान्य शब्द है क्योंकि ऐसा  योग होता है। जब युद्ध में व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होते हैं शरीर से आभूषण और मूल्यवान वस्तुएं उतारे जाती है। उसी तरह आपदा या बीमारी में वस्तुएं महंगी या सेवाओं का मूल्य बढ़ा दिया जाता है। ऐसा अर्थशास्त्र के सिद्धांत के आधार पर नहीं बल्कि मनुष्य की स्वयं की प्रवृत्ति के आधार पर होता है। दलालों की संख्या अचानक बढ़ जाती है। लेकिन इसका एक पक्ष यह भी है कि मनुष्य गरीब है, धन चाहता है जिसकी व्यवस्था यह तंत्र नहीं कर पाता। रोजगार का अभाव और भौतिकवाद इस तरफ धकेलता है। जहां पर भ्रष्ट शासकीय व्यवस्था दंड का  प्रावधान नहीं रखते। क्योंकि इनका अंत संतोष प्रवृत्ति या दंड व्यवस्था से ही किया जा सकता है। इस भयावह समय में यह प्रवृत्ति हर तरफ नजर आई है।

 अगर व्यक्ति में अत्यंत दोष है तो मनुष्य से अधिक गुणात्मक भी कुछ नहीं है। यही तो प्रकृति को प्रेम का आधार बनता है। ऐसी गंभीर परिस्थिति में जब सरकार अपनी क्रियाओं के सही संचालन न करने के कारण लोगों को सहायता ना उपलब्ध करा पाई, तब ऐसी स्थिति को कुछ दानदाताओं ने संभाल लिया उन्होंने स्थानीय स्तर पर हर संभव मदद उपलब्ध कराई।

एक मुद्दा इस विषमता की खाई के कारण और बना कुछ बुद्धिजीवी लोगों ने इस मजदूर वर्ग को असभ्य कहा। उनके अनुसार यह लोग जीने का संस्कारित तरीका नहीं  जानते हैं। भीड़ में अव्यवस्था उत्पन्न करते हैं। अवश्य ही ऐसा है। लेकिन इसका कारण  ऐसे  धनी  लोग और बुद्धिजीवी लोग हैं जो धन को सदियों से खा रहे है। इसमें समय-समय पर सरकार मदद करती रही है। एक बच्चे का जन्म होने के बाद उसे सभ्य समाज का हिस्सा बनने के लिए शिक्षा पर खर्च, स्वास्थ्य पर खर्च, क्षमता को उपयोगिता में बदलने पर खर्च किया जाता है तब वह सभ्य बनता है।  किंतु इस मजदूर वर्ग पर, ऐसे किसी वर्ग पर इस तरह का खर्च नहीं किया गया  इसलिए इनसे बराबर सभ्यता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए।

 दूसरा यह  तथाकथित बुद्धिजीवी जो किसी समाज को असभ्य समाज समझते हैं भूतकाल में जाए जब भारत में अंग्रेजों का शासन था। तब एक अंग्रेज की शिक्षा पर और दक्षता को निखारने में धन खर्च होता था। जबकि भारत के सामान्य  नागरिक के लिए ऐसा नहीं होता था। उस समय अंग्रेज स्वयं को सभ्य और भारतीय लोगों को असभ्य कहकर संबोधित करते थे। इतिहास अधिक पुराना नहीं है। किंतु जब भारत स्वतंत्र हुआ, विद्यार्थी वर्ग को शिक्षित होने का अवसर प्राप्त हुआ तो वह  सभ्य बना। आवश्यकता है वह समाज जो अशिक्षित है उसे अवसर प्रदान किया जाए और इस सभ्यता और असभ्यता की खाई को खत्म किया जाए। यह लंबी योजना हो सकती है किंतु इसका समाधान यही है।इसका समाधान नफरत नहीं है।

 इसका अस्थाई समाधान यह है की सरकार और गैर सरकारी ऑर्गेनाइजेशन मिलकर साथ हैं। और जिस तरह साक्षरता मिशन को बढ़ाया गया था उसी तरह सभ्यता और स्वास्थ्य की नियमावली को समाज के मजदूर वर्ग से  जोड़ा जाए।

 भारत में इस महामारी के दौरान अनेक आधारभूत आवश्यकताओं  की तरह मनुष्य का ध्यान खींचा है। रोजगार तो एक विषय है, जो भारतीय गरीबी के माध्यम से चित्कार रहा  है। भारत में न केवल बेरोजगारों को रोजगार की आवश्यकता है अपितु देश को भी कर्मचारियों की महती आवश्यकता है। वर्तमान में भारत में सुरक्षा तंत्र में कर्मचारियों की कमी देखी गई है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में कर्मचारियों की कमी देखी गई है। यही कारण है की पुलिस तंत्र में कर्मचारी कम है और दायित्व ज्यादा है। इससे मानसिक रूप से कर्मचारियों पर प्रभाव पड़ता है और वह दंड व्यवस्था को अपनाने का प्रयास करता है l कारण मात्र है। कर्मचारियों की कमी है। भारत में स्पष्ट रूप से यह बात सामने आई है आधारभूत सुविधाओं पर ध्यान दिया जाए ना की विलासिता की चीजों पर। इससे ही समाज में चल रही आर्थिक विषमता की खाई को खत्म किया जा सकता है।

पूजा आर झिवर, चार्टेड एकाउंटेट, अलवर (राजस्‍थान)