"माँ की रसोई का जायका"
न्यूज भारत, सिलीगुड़ीः रचनाओं के लिए काव्य हो आलेखन की एक ही दिन में तैयार होती है, परंतु उसकी लगन और शौक बचपन से होता है। वक्त और हालात उसे इसमें रूचि लेने से रोकते है। परंतु अगर दिल में लेखन की रूचि है, तो एक दिन उम्र के किसी पड़ाव पर उभरती जरूर है, बस उसे अपनी "साधना की शख्सियत" बरकरार रखनी होती है। ऐसी एक शख्सियत हैं" आशा बंसल' जो काफी समय के बाद मन में दबे लेखन के सपनों को साकार किया। " बचपन से ललक थी लेखन के माध्यम से काव्य रचनाओं को मूर्त दूं परंतु समय हालात कुछ विपरीत रहा, अब मेरे ये सपनें करीब एक वर्ष पहले पूरी हुई, जो अनवरत रहने की उम्मीद है।" आशा बंसल सिलीगुड़ी "माँ की रसोई का जायका" कैद हो गई घर घर औरत, कैसे वक्त बिताती है, रसोई से वक्त निकाल नहीं पाती, सोच रही माँ की रसोई का जायका है रसोई से खाने की मेज, खाने की मेज से रसोई सुबह सुबह की गरम चाय, फिर तैयार नाश्ता है नाश्ते के बाद खाना, फिर समय हो गया शाम की चाय का जाने की कोई राह नहीं, सोच रही माँ की रसोई का जायका है सोच रही...। किसी को टीकड़ा, किसी को फुलका परिवार वाले लगा रहे जायका है सबकी इच्छा पूरी करके, पीला रही वो रायता है जाने की कोई राह नहीं, सोच रही माँ की रसोई का जायका है सोच रही...। चाय और रात के खाने के बाद जब समय वो पाती है थोड़ी सी भी बिस्तर पर, ना चेन की नींद वो ले पाती है ख्वाब में आते चोले भटूरे, झट उठ कर बैठ जाती है कल नाश्ते मे क्या क्या बनाना, यह सोच सोच घबराती है जाने की कोई राह नहीं, सोच रही माँ की रसोई का जायका है सोच रही...। भाई बहन की याद आ रही है माँ बाप के प्यार का वो वास्ता है जाने की कोई राह नहीं, सोच रही माँ की रसोई का जायका है सोच रही...।