पुस्तक समिक्षा
आदिवासी महिलाएं, प्रेम त्याग, पुरूष प्रधान देश विधवा की दशा और जिस्मों का विखराव समाहित
“ हमारे समाज में स्त्रियाँ खुद ही टूटती रही, आगत-विगत समय में खुद पर शोध करती रहीं, शास्त्रों, उपनिषदों में अपना वजूद टटोलती रही, इतिहास, भूगोल खंखालकर खुद को जानने की कोशिश करती रही, इस लम्बी यात्रा में अपना स्वरूप बदलती रही, पर आज तक अपनी पूर्ण पहचान कायम नहीं कर पायी, अपनी पूर्ण पहचान समाज में बनाने की छटपटाहट संग्रह की स्त्रियों में दिखार्इ देती है।” –डॉं वंदना गुप्ता
पवन शुक्ल, सिलीगुड़ी
आज स्त्रियॉ भले ही पुरूषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चल रही हैं, परंतु उनकी संवेदनाएं आज भी घर के चौखट के भीतर ही दफन हैं। वहीं आज स्त्रियॉं अपनी घुटन और चीख से बाहर निकलने की कोशिश तो कर रही हैं, परंतु सामजिक बंधन की बेड़ियां आज भी उनके पैरों में बांध कर रखी गर्इ है। भारत के 21वीं सदी में आधी आबादी का दर्द आज भी छलक रहा है। डाँ. वंदना गुप्ता का काव्य संग्रह “फिर लौटेंगी स्त्रियॉं” आज के दौर के उन स्त्रियों के दर्द की कहनी को बंया कर रही है, जो जीवन के वास्तविक मूल्यों से परे है। डॉ गुप्ता ने अपने इस काव्य संग्रह के माध्यम से सूदूर क्षेत्रों में बसी खासकर आदिवासी महिलाओं के दर्द को बड़े ही तार्किक ढ़ग से अपने काव्य संग्रह में सजो कर दुनियां के सामने प्रस्तुत किया है। “इन्सान थी मगर सभ्स नहीं” में जो डाँ गुप्ता ने काव्य की रचना में लिखा कि वास्तव में इस देश के विकसित समाज के लिए सोचने पर मजबूर करता है। हलांकि हम आज भी आधुनिकताके दौर में जी रहे हैं, परंतु उन सुदूर क्षेत्रों में बसे आदिवासी आज भी आधुनिकता की दौर दूर हैं। अगर वह कभी किसी शहर में पुहंच गए तो वहां के हाल को देखकर खुद को कोसने पर मजबूर हैं। वहीं “उतर रहा है मुझमें” डॉ गुप्ता ने प्रेम की परिभाषा का जो वर्णन किया है, वह प्रेम के वास्विक अर्थ को दर्शाता है, जैसे “ एक सूत्र प्रेम का अर्पित किया था तुमको” “उतर रहा है मुझमें धीमें-धीमें भाव भंगिमा एसी जो प्रेम के एहसास को दिल में उतार दिया। इस काव्य संग्रह में जहां समाजिक कुरितियों पर कुठाराघात वहीं प्रेम की परिभाषा भी। इसके बाद स्त्री पर अत्याचार “ क्यों शिकार होती है देह” इंसनी हवस का शिकार सदियों से होता आ रहा है। इस पर उनके काव्य को एक बेहतर रूप से अपने शब्दों को पिरोया है। जैसे “ जो चलता चला आ रहा अनंत काल से, बेअबरू होते रहे जिस्म टूटते रहे स्त्रीत्व के सिरे उल्कापात के मानिंद” मार्मिक दर्द और समाज की संवेदन हीनता इससे साफ जाहिर होताहै। डॉ वंदना की एक कविता “ रोती रही वे विधवाएँ” इस देश की यह प्रथा नारी के जीवन को कलंकित करती है। विधवाओं को लेकर जो समाज की दशा है वही काफी संवेदनहीन है। इसकी सामजिक कुरितियां यह है कि अगर पति मर जाय जो विधवा घर में कंलकिनी, डायन जैसे शब्दों का प्रयोग होता है। वहीं श्रृगांर तो करना नहीं है, आखिर क्यों.? पति के मरने में पत्नी को क्या सुख मिलेगा.? यह सबसे बड़ी सामजिक बिडंबना है। वहीं सबसे अहम बात यह है कि अगर पत्नी मर जाती है तो पुरूष प्रधान समाज में कोर्इ बंधन नहीं.? । काव्य संग्रह पूरी तरह से समाज की संवेदनाओं को प्रकट करता है। जो आज युवावर्ग के लिए पठनीय है।