साधना की शख्सियत -14

न्‍यूज भारत, सिलीगुड़ी: जहां चाह वहीं राह, ये कहावत कोई नयी नहीं है। देश व प्रदेश जो भी हो रचनाएं अपना स्‍थान बना ही लेती हैं। बंगाल के विभिन्‍न स्‍कूलों में बेहतर शिक्षण कार्य करने के साथ काव्‍य की रचनाओं को एक बेहतर मुकाम तक पहुंचाने वाली शख्शियत हैं 'डा बंदना गुप्‍ता'। बचपन से शिक्षा के क्षेत्र में और रचनाओं के लेखन में रुचि रखने के कारण ही आज विभिन्‍न रचनाओं के माघ्‍यम उत्‍तर बंगाल में ''साधना की शख्शियत'' बन गई है। साथ ही उनकी रचनाओं से युवा रचनाकारों के लिए एक मील का पत्‍थर साबित हा रही हैं।
''झांसी (उत्‍तर प्रदेश) की धरती से मिली शिक्षा की विरासत को अब उत्‍तर बगांल के लोगों के बीच बांट रही हूं। बंगाल आने के बाद शिक्षण कार्य के साथ ही काव्‍य की रचनाओं को विषेश रुप से एक स्‍थान दिया, जिसके कारण  सिलीगुड़ी में अध्यापन कृतित्व-अस्मिता की तलाश (काव्य संग्रह), मयूरपंख ख़्वाहिशों के (काव्य संग्रह) देश की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं- दोआबा, भाषा स्पंदन, मुक्तांचल, प्राची, साहित्य त्रिवेणी, चौपाल, नयी धारा, आजकल, जनसत्ता, नेपाल से निकलने वाली पत्रिका, हि मालिनी इत्यादि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित हुई  तो कुछ और बेहतर करने की कोशिश की, इसके साथ ही  आकाशवाणी कर्सियांग से कविताओं, वार्ताओं , कहानियों, व परिचर्चाओं का प्रसारण विभिन्न नाटकों का मंचन व संचालन करने का सौभग्‍य भी प्राप्‍त हुआ।'' डा बंदना गुप्‍ता, सिलीगुड़ी।
        प्रकाश स्तम्भ-भर आती है आंखें मेरी
रात के गाढ़े सन्नाटे में सिसकती  वे पीड़ाएं अब भी जिन्दा हैं
रगों में मेरी जो करती अवचेतन को विक्षिप्त
भटकाती दर्द के उन घने जंगलों में जहाँ कंकाल किसानों के
रक्त रंजित पैर गहरे धंसे है जमीन पर लहू उगलती उनकी पीड़ाएं
स्याह टपकाते पसीने के स्वेद बिन्दु लौह से दहकते है मुझमें
उन युवतियों की बेआवाज़ चीखें भेदती है मेरे कानों को
जब उनके नवजात शिशुओं को उनकी छाती से खींचकर
बनाया जाता है उन्हे वासना का शिकार
वे, बेआवाज़ छायाएं डोलती है मेरे आस पास
पत्तों से नरम देह वाली किशोरियों की यातना
जब टपकती है अश्रु बन आंखों से उनकी धरा पर
तब उनकी आंखों के रीतेपन से
भर आती है आंखें मेरी
वेदना से हो जाता है बोझिल मन मेरा
रात के गाढ़े सन्नाटे में घनीभूत मेरी पीड़ाएं
गर धर सकती अपनी पीठ पर कोई प्रकाश स्तम्भ ऐसा
जो बन जाता इनके भविष्य की रोशनी कोई|