संघर्ष से लेकर कामयाबी तक डाॅ.भीखी प्रसाद वीरेन्द्र

एनई न्यूज भारत सिलीगुड़ी: "जब गुड़ गजन सहे तब मिसरी नाम धराय" अर्थात अत्यंत पीड़ा सहने के बाद ही भाग्योदय होता है। मेरी मम्मी की ये बात मैं बचपन से ही सुनती आई हूँ पर बचपना खुद पर इस कदर हावी था कि सही मायने को कभी समझ न सकी और हँसकर माँ को कह देती थी- बिस्किट फैक्टरी वाले की बेटी हो न तुम मम्मी बिस्किट , चाॅकलेट , मिश्री के अलावा कोई और बात तो तुम करोगी नहीं। काश! नानाजी होते तो उनसे तेरी शिकायत करती इतना कहकर खूब ठहाके लगाया करती थी। पर सच तो ये है कि माँ कभी गलत नहीं होती वो हमेशा सही होती है बस नादानी तो हम बच्चे कर जाते हैं उनकी बातों को नजरअंदाज कर। हमलोगों को सही गलत समझाने के लिए हमारी माँ है पर वो बच्चा जिनके सर से मात्र पाँच वर्ष की आयु में ही माँ का आँचल हमेशा के लिए छीन जाता है ज़रा सोचिए उस बच्चे का बचपना कैसे कटा होगा? हिंदी में एक कहावत है- "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" अर्थात होनहार बच्चे की छवी पालने में ही दिख जाती है। वहीं से समझ जाते हैं कि यह बच्चा आगे चलकर कुछ अच्छा कार्य करेगा जग में अपना नाम रौशन करेगा। शायद इस बच्चे की माँ को ये आभास हो गया था तभी तो अपने पाँच वर्षीय पुत्र को अकेले छोड़ इस दुनिया को अलविदा कहते हुए पुत्र वियोग का मोह तो जरूर हुआ होगा पर इस बात पर भी पूर्ण विश्वास होगा कि उनका बेटा इस दुनिया में कुछ कर दिखायेगा। खैर नियति को जो मंजूर वो तो होता ही है। मृत्यु तो शाश्वत सत्य है एक न एक दिन सबको पंचतत्व में विलीन होना ही है तो फिर सत्य को क्या नकारना! वो बच्चा जिसका जन्म अत्यंत गरीब परिवार में हुआ हो। जिसके पिता बीड़ी मजदूर हो, जिसके पास ठंड से बचने के लिए पूरी पोशाक न हो। वो गांती (बिहार में पहना जाने वाला एक प्रकार का वस्त्र जो धोती या अन्य कपड़े को लपेटकर पीठ पर गाँठ लगा दी जाती है) पहनकर ठंड से अपना बचाव करता हो। चूँकि मेरा जन्म भी बिहार में हुआ है और मैंने खुद अपनी आँखों से गरीब बच्चों को ठंड के मौसम में इस लिबास में देखा है तो फिर से मेरी स्मृति में वो सारे दृश्य आँखों के सामने उभर आये। हमारे समाज में गरीबी को अभिशाप कहा गया है पर मैं इन बातों से पूर्णतः असहमत हूँ अगर सच्ची लगन हो तो गरीबी हमारे रास्ते में कभी रुकावट पैदा नहीं कर सकती। एक बीड़ी मजदूर तिनका-तिनका पैसे जोड़कर तम्बाकू पत्ते का व्यवसाय करता है। यूँ तो इनका पैतृक स्थान उत्तरप्रदेश है पर जीविका चलाने के लिए उनके पिता दिनाजपुर आए थे वहीं उस होनहार बच्चे का जन्म हुआ। दिनों-दिन व्यापार बढ़ता गया और देखते ही देखते दिनाजपुर जिले के ठाकुरगाँव में 26 बीघा जमीन पर खेती शुरू हो गई अपना मकान भी बन गया गल्ला-माल का व्यवसाय भी शुरू हो गया। बच्चे की प्रारंभिक शिक्षा तो गुरुजी की पाठशाला में हो गई थी यहाँ इन्होंने कक्षा 4 में दाखिला लिया। सब कुछ ठीक हो गया था जिंदगी की रेलगाड़ी पटरी पर चलने लगी थी। ये खुशियाँ भी कुछ दिनों की ही मेहमान थी फिर कुछ सालों बाद कहर बरसा और देश का बँटवारा हो गया ठाकुरगाँव अब पाकिस्तान के हिस्से में था। सब कुछ छोड़कर सपरिवार चल पड़े नई जिंदगी की तलाश में। जिंदगी उस चौराहे पर खड़ी थी जहाँ चारों तरफ रास्ते तो थे पर मंजिल का पता नहीं। उस वक्त उस 10 वर्ष के बालक के कोमल दिल पर क्या गुजरती होगी इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ये सारे कटु अनुभव से मैं भलीभाँति परिचित हूँ। यहाँ मेरा कहना जायज होगा- "जाके पैर न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई" घर की माली स्थिति को देखते हुए सातवीं कक्षा तक पढ़ाई करने के बाद बच्चा पढाई छोड़ने को बाध्य हुआ पर माँ सरस्वती की असीम कृपा इस बालक पर बनी रही। शायद जिंदगी भी इस मासूम का इम्तिहान ले रही थी पर यह बच्चा कहाँ हार मानने वालों में से था। ये बात इस मासूम ने खूद अपनी कविता के माध्यम से कहा है जो बंगला भाषा में लिखी गई है - "आमि थाकिबो ना ओरे चिर शिशु हये गृहेर कोणे। आमि जगत् व्यापिया घुरिया बेड़ाबो अजानार संघाने।'

(मैं चिर-शिशु होकर नहीं रहूँगा। घर के कोने में बंद। सारी दुनिया को छानूँगा। अंजान जगत को खोजूँगा।) सातवीं कक्षा में ही जब बच्चा अपनी कविता में दुनिया छानने की बात कहता हो। आप बच्चे के साहस का अनुमान लगा सकते हैं। वो बच्चा कोई साधारण बच्चा नहीं हो सकता। तमाम संघर्ष को झेलते हुए वो बच्चा पीएचडी तक का सफर पूरा करता हुआ युवावस्था में पहुँच चुका है। होमियोपैथी के रजिस्ट्रेशन एग्जाम में उत्तीर्ण हो चुका है। शिक्षक भी है। होमियोपैथिक का डाक्टर भी है। साहित्य में भी अपनी पहचान बना चुका है। अब तक कईं पत्रिकाओं में इनकी रचना प्रकाशित हो चुकी है। 28 वर्ष की उम्र में ये विवाह बंधन में बँध जाते हैं। अब फिर से खुशियाँ इनके जीवन में लौट आती हैं। एक नये जीवन की शुरुआत करते हैं। संतान सुख की प्राप्ति होती है। पारिवारिक जीवन में बँध जाते हैं। नित्य साहित्य साधना में लीन भी रहते हैं। समय के साथ पति-पत्नी के रिश्ते में मिठास बढती जाती है और साथ रहते हुए तैंतालिस वर्ष पूरे हो जाते हैं। भौतिक रूप से इनकी पत्नी इन्हें अलविदा कह देती है पर आत्मा कहा अलग होने वाली दो बदन एक जान जो ठहरे। वास्तव में प्रेम के सही मायने को समझना हो तो इनकी कृति 'एक तुम्हारे चले जाने से' पढ़ें। हालाँकि ये पुस्तक मैं नहीं पढ़ी हूँ पर इनकी कुछ पंक्तियों को मैंने पढ़ा है जो मुझे भावुक कर देती हैं। इन पंक्तियों को मैं आपके साथ साझा कर रहीं हूँ- "इस पुस्तक का हर एक शब्द शब्द नहीं, मेरे आँसू हैं आँसुओं से भींगी हुई है हर पंक्ति इसे पढ़ने की जब-जब मैंने कोशिश की भर आई आँखें पंक्तियाँ धुंधला उठी भर आया कंठ..." इन पंक्तियों को पढ़कर ऐसा महसूस होता है इन्होंने अपनी पत्नी से सिर्फ प्रेम ही नहीं देवी की तरह पूजा की है तभी तो हरेक पंक्तियों को अपने अश्कों से सींचा है इन्होंने। रिश्तों को संजीदगी से जीना कोई इनसे सीखे। पुत्री के लिए इनका अथाह प्रेम तब हमारे सामने आता है जब वो अपनी पत्नी के साथ बेटी की विवाह के बाद विदाई की बात सोच-सोच कर रोते हुए अपनी भावनाओं को शब्दों में पिरोते हैं- "बेटियाँ फूल होती हैं फैलाती हैं खुशबू खुशबू से भरा रहता है उसके मायके का घर आंगन शादी के बाद बेटियाँ चली जाती हैं ससुराल पर उसकी खुशबू नहीं जाती छोड़ कर अपना मायका।"

सच एक पिता-पुत्री का रिश्ता कितना गहरा होता। वो नन्ही सी गुड़िया जो उनके गोद में पलती है। अचानक से बिटिया अपने ही घर में पराई हो जाती है। घर के हर कोने से सुनायी पड़ती है उस बच्ची की खिलखिलाती हँसी पर वो किसी ओर के घर की रौनक होती है। पिता के लिए अपने कलेजे के टुकड़ों को सौंपना कितना मुश्किल होता होगा। सोच कर ही आँखें नम हो जाती है। इन्होंने चाटुकारिता नहीं सीखी, इनमें सच कहने का साहस है तभी तो ये अपनी एक कविता में कहते हैं- जो सच को अपनी नंगी आँखों से नहीं देख पाते मैं उनके साथ नहीं हूँ। मैं अलग ही रहूँगा मेरा रास्ता , मेरा अपना रास्ता होगा भले ही आज कोई मेरा साथ न दे कल मेरे साथ सारा विश्व होगा क्योंकि सच जैसा है मैं वैसा ही उसका बयान कर रहा हूँ राजा यदि नंगा है, तो कह रहा हूँ उसे नंगा, जो राजा को नंगा देखकर भी कहते हैं- 'अहा ! राजा कितनी सुंदर पोशाक पहने हुए हैं' मैं उनके साथ नहीं हूँ। मैं इनकी एक और रचना का जिक्र करना चाहूँगी- "धरती के करीब" मैं धरती का कवि हूँ मेरी कविता में धरती के सुख-दुख की छाया है, दूर तक लहलहाते हुए खेत की माया है, तो बंजर धरती की वेदना भी सबको मैं ढोता हूँ कभी-कभी हँसता हूँ ज्यादातर रोता हूँ आकाश से भी मेरा रिश्ता है लेकिन मैं धरती के ज्यादा करीब हूँ क्योंकि मैं गरीब हूँ। ये धरती का कवि कोई और नहीं राष्ट्रभारती पुरस्कार 2016 से विभूषित बहुमुखी प्रतिभा के धनी वरिष्ठ साहित्यकार सिलीगूड़ी की आन बान शान डाॅ.भीखी प्रसाद वीरेन्द्र हैं। यूँ ही कोई भीखी प्रसाद 'विरेन्द्र' नहीं बन जाता! इनको अपनी ये पहचान विरासत में नहीं मिली है बल्कि इनकी कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास का परिणाम है। इन्होंने ये साबित कर दिखाया एक बीड़ी मजदूर के बेटे को भी बड़े सपने देखने का हक है क्योंकि ये सपने रात के अंधेरे में बंद आँखों से नहीं बल्कि दिन के उजाले में खुली आँखों से देखा गया था। खुली आँखों से देखे जाने वाले सपने एक दिन जरूर पूरे होते हैं। एक उदाहरण जो आज हमारे बीच है। दुनिया कामयाबी के पीछे भागती है पर सच तो ये भी है कि कामयाबी के पीछे संघर्ष की एक लम्बी कहानी होती है पर उससे ही हम अनभिज्ञ रह जाते हैं। दादाजी आपकी तारीफ करने के लिए हमेशा मेरे शब्दकोश में शब्दों की कमी रही है। उतनी मेरी योग्यता भी नहीं कि मैं आपकी तारीफ कर सकूँ। आपकी तारीफ करना सूरज के सामने दीपक जलाने के सामान है। आपका व्यक्तितत्व किसी स्कूल से कम नहीं है। आपकी रचनाओं को पढ़कर ही मेरी साहित्य में दिलचस्पी बढ़ी है। आपके सान्निध्य में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला है। मुझे आप पर बहुत गर्व है। एक और बात पता नहीं मैं साहित्य के क्षेत्र में कहाँ तक जा पाऊंगी पर हाँ जब भी निराशा से घिर जाऊँगी आपके संघर्ष की कहानी को मन मस्तिष्क में फिर से दोहराउंगी। आपके शब्द ही मुझमें सकारात्मक ऊर्जा का संचार करेंगे। पता नहीं ये सब आपको मैं कब कह पाती इसलिए मैंने अपने मन की बात कहने के लिए इस विशेष दिन को चुना। आज का दिन हम सब के लिए बहुत ही पवित्र दिन है क्योंकि आज आपका जन्मदिन जो है। जन्मदिन की बधाई और शुभकामनाएं दादाजी। चरण स्पर्श दादाजी।

प्रियंका जायसवाल सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल)