...और चाय की प्‍याली में रचनाओं का तूफान

साधना की शख्शियत-48

पवन शुक्‍ल, सिलीगुड़ी

जीवन के हर दौर में संर्घष है, यही संर्घष लक्ष्‍य प्राप्‍ति की ओर ले जाता है। संर्घष के बाद मिलने वाली मंजिल का एहसास बहुत ही सुखद होती है। काव्‍य और साहित्‍य से जुड़ाव पारिवारिक विरासत की पहचान होते है, लेकिन अक्‍सर यही देखा जाता है। लेकिन अगर कोई जिसकी परिवार में दूर-दूर तक काव्‍य या साहित्‍य से कोई मतलब नहीं होता। सिर्फ दो जून की रोटी के लिए गिरमिटीय मजदूरों की तरह धूप, छांव और बरसात के बीच बिना थकेख्‍ बिना हारे लगा रहे, तो वहां काव्‍य की कल्‍पना एक सूर्य को दिये दिखाने जैसे होता है। लेकिन जब तंग गलियों से कोई अपनी लगन से काव्‍य या साहित्‍य की दुनियां में कदम रखता है तो काबिले तारिफ होता है। मजबूरियां जो भी हो पर लगन सच्चे दिल से हो तो सफलता मिलना लाजमी है। काव्य की दुनिया में इन्‍हीं तंग गलियों से और उत्‍तर बंगाल के डुवार्स के चाय बगानों की सोधी खूश्‍बू के बीच अनेक परेशानियों के बीच आज भी काव्‍य रचनाओं की लै धधक रही रही है। पर आज भी मजदूरी के बीच सिर्फ बच्‍चों को सिर्फ पढ़ाई तक सीमित है। अगर इन बागानों के बीच से कोई काव्‍य की रचनाओं की अग्रसर होता है तो वह उसकी ‘ साधना की शख्शियत’ होती है। आज डुवार्स के चाय बगान के बीच से एक युवा उत्‍साही जो गैर हिंदी भाषी लिखने की तमन्‍ना लिए ‘मेरे अल्‍फाज’  में शामिल है। न्‍यूज भारत की मुहिम उभरती प्रतिभाओं को स्‍थान देना है। इस कड़ी में चाय बगानों में काव्‍य और साहित्‍य के रूचि रखने वाली प्रतिभाएं तो अवश्‍य है पर उन्‍हें निखारने की कोशिश की जरूरत है। वहीं गैरहिंदी भाषी लोगों में काव्‍य के प्रति जो प्रेम दर्शाता है उससे उनके दिलो में एक रचनाओं के तूफान की आग धधक रही है।

आज अर्चना विश्वकर्मा जलपाईगुड़ी के न्यु डुवार्स डिवीसन चाय बगान की रहने वाली है। वह इस चाय बगान की पहली लड़की लड़की है, जिसने 10 वीं और 12 वीं में प्रथम स्थान से उत्तीर्ण किया हैं।

‘’उपन्यास, कहानी और कविता पढ़ने की रुचि रखती हूँ। समाज के कमजोर पक्ष चायबगान की समस्याओं पर कविताएं भी लिखती हूँ। मेरी कविता " बरसात का मौसम " चाय बगान के मजदूरों पर लिखी गई हैं। बरसात के मौसम में हम घर बैठे चाय का आनंद लेते हैं लेकिन उस चाय पत्ती को कड़ी मेहनत से उगाने वाले मजदूर की स्थिति उन दिनों कितनी बुरी होती है। उनकी दयनीय दशा का चित्रण इस कविता में किया गया हैं। बानरहाट कार्तिक उराँव हिंदी गवर्नमेंट कॉलेज में स्नातक तृतीय वर्ष में पढ़ रही हूँ।‘’

"बरसात का मौसम"

बरसात शुरू होते ही

मौसम सुहाना हो जाता है,

हर तरफ़ हरियाली ही हरियाली

का आशियाना हो जाता है।

घर में पाँव पसारे बैठ

चाय की चुस्कियाँ

का बस इक बहाना है

असल तो मौसम सुहाना है।

लेकिन इस सुहाने मौसम में

कुछ लोग ऐसे भी हैं

जो कीचड़ में, कड़कती बिजली

और गरजते बादलों के नीचे

सर पर प्लास्टिक की पन्नी ओढ़े

जर-ख़रीद ग़ुलामों तरह

लगातार काम पर लगे रहते हैं।

ताकी बिस्तर तक

चाय की महक घुल सके।

जब तूफान तेज होता है

'वे' कपड़ो को

घुटनों तक उठाते हैं,

चिकने कच्चे रास्ते पर

दबे पाँव चले जाते हैं,

कचरा आंखों में चला जाए

तो उसी झोली से मलते हैं

जिसमें पत्तियाँ उढेलते हैं

और टहनियों, घासों को पकड़ कर

आगे बढ़ते जाते हैं।

दस फूट से भी अधिक चौड़े

बरसाती नालों को पार करते हैं,

कभी बच जाते हैं

कभी डूब कर मर जाते हैं।

लेकिन चाय की तरह

उनके मरने की खबर

तुम तक नहीं पहुँच पाती।

यहाँ एक पुल तक नहीं बना

क्योंकि तूफान में

कोई साहेब-बाबू नहीं मरा।

काश हमारी चाय की तरह

तकलीफ़ें भी पहुँच पाती

तुम्हारे होठों तक।

-अर्चना विश्वकर्मा (न्यु डुवार्स डिवीसन चाय बगान, जलपाईगुड़ी)