साधना की शख्सियत-6

... और बादलों का अब गहराता साया

न्यूज भारत, सिलीगुड़ीः साधना की परिकल्पना एक दिन में नहीं होती, ये बचपन से आसमान में उड़ने की परिकल्पना होती है। सपनों के इस उड़न को रोकने या आसमान की उचाईयों छूने की क्षमता स्वयं पर ही पर निर्धारित होती है। शैशवकाल के सपनें अगर किसी कारणवस अवरुद्ध हो जाते है, बावजूद इसके अगर समय और मौका मिले तो जीवन के किसी भी काल में सपनों की उस उड़ान को हासिल करने में तमाम बाधाएं, परंतु वह पूरे जरूर होते हैं और इसी को कहते हैं " साधना की शख्सियत" । आज के इस छठे भाग में हम उस शख्सियत की बात करतें है नाम है "किरन अग्रवाल" । गृहणी होने के साथ साथ उनकी काव्य रचनाओं को कई पत्र पत्रिकाओं में स्थान मिला है। हलांकि बचपन में भाषा नेपली थी परंतु हिंदी काव्य की रचनाओं के साथ, गायन, वादन और नृत्य में हैं और गृहस्थी के साथ परिवार जीवन को भी बखूबी निभा रही।
"पांचवीं कक्षा में पहलीबार नेपाली भाषा में कविता मेरे अध्यापक "श्री संतोष राणा जी"ने बहुत तारीफ किया और कहा क्षमताओं का विकास करो, लेकिन उसके बाद प्रयास नहीं किया। छोटी उम्र में शादी हो गयी फिर जिंदगी के उस बहाव में बहती चली गई। अचानक आँखे खुली और गुरु कृपा से अन्यास ही लिखने के भाव ने मुझे छू लिया | अनुभव, भाव, कल्पना और जागरूकता का साथ लिए मेरी लेखनी ने उड़ानभरी और काव्यों की रचनाओं में डूब गई। प्रकृति, साहित्य, गायन, वादन, नृत्य की अपार परिकल्पना, मन में लिए सदैव एक दूसरे प्रेम और उसकी खुशी के लिए प्रयास रहा है"

एक कोयल और मैं
दिनभर अपने वेगों में उड़ान भरकर
मधुर तान से जग को गुंजायमान कर
जब थकने लगी सुरमाधुरी एक कोयल
तब बैठी जाकर निश्चिन्त एक डाल पर
सहेज कर अपने नन्हे नन्हे पंखों को
ढलते सूरज के अपलक दीदार को ।
मैं भी तो थक कर बैठी ही थी अभी
प्रकृति की ओर खुलती खिड़की तले
जहाँ से देखती रह गई अदभुत दृश्य
पेड़ की डाल पर एक कोयल
नीरव आकाश में थकता ढलता सूरज
और बादलों का अब गहराता साया।
लग रहा था कि जैसे सहज भाव में होकर
कोयल अपनी कू कू की आवाज़ बंद कर
आत्म संवाद की प्रेम की मौन गुफ्तगू कर
अपने प्रीतम से कोयल बिन मिले मिलकर ।
अस्तांचल होता सूरज अपनी ही धुन में
अपना रंग दिखाता क्षितिज में छिपकर
अपनी रौशनी के अलग अलग रंगों में
बिखेरता सुर्ख रंग लाल बादलों में
और रंगों की होली खेल बादलों संग
डूब रहा रंगरेज बादलों में विहंगम।
उदास चुपचाप कोयल कुछ न कहती
फिर इंतजार करती नव विहान का
वो अंदाज खूब जानती है विधान का
अब से हर दिन सांझ,खिड़की, कोयल
और मैं टुकुर टुकुर ताकती उसी डाल पर।
वो कोयल और खिड़की तले मैं
हां मौन मुखरित एक दृश्य हैं जीवन का।