आधुनिक युग में समय की मांग गीता के सार की सार्थकता

10 दिनो के महाकुम्भ में जूम के माध्यम से रोजना लगभग 200 ले रहे थे भाग

न्‍यूज भारत, सिलीगुड़ी :  श्रीमद् भगवत गीता प्रेमी एवं  सुप्रसिद्ध गीता विश्लेषिका श्रीमती बीना जी लाखोटिया के मुखारविंद से जूम के माध्यम से  माहेश्वरी महिला  मंडल सिलीगुड़ी के द्वारा आयोजित " गीता सार " के दस दिनों की क्रांतिकारी विचारों वाली चर्चा आज सम्पन हुई। कार्यक्रम संयोजिका सरोज मूधङा एवं सुचिता डागा ने बहुत ही सुंदर तरीके से  इस धार्मिक कार्यक्रम की बागडोर अध्यक्षा भारती बिहानी संभाली।  

 सचिव मनीला राठी एवं कोषाध्यक्षा सविता झवर ने कहा आज के इस आधुनिक युग में समय की मांग अनुसार गीता के सार की सार्थकता को स्थापित जिन  क्रांतिकारी विचारों द्वारा श्रीमती बीना जी ने अपनी सरल भाषा में किया उससे निश्चित तौर पर जन मानस लाभान्वित हुआ है !!

हज़ारों वर्ष पहले द्वापर युग में भगवान् श्री कृष्णा ने कुरुक्षेत्र में अर्जुन को युद्ध भूमि के मध्य जिस गीता का उपदेश दिया था और अर्जुन को अपने कर्म को प्रधान मानते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करने की प्रेरणा दी थी ठीक उसी प्रकार श्रीमती बीना जी ने गीता उपदेश की प्रासंगिकता को इस कलयुग में भी स्थापित किया है।  अपनी सरल भाषा में रूढ़ि वादी परम्पराओं को छोड़ते हुए आज के युग की आवस्यकता अनुसार हम सभी को कर्म प्रधान जीवन जीने की प्रेरणा दी है।

इस से 10 दिनो के महाकुम्भ में जूम के माध्यम लगभग रोज़ाना200 से भी ज्यादा लोगों द्वारा इसका लाभ लिया गया !! सभी ने अपनी स्वेच्छा से रोजाना समय पर इससे जुड़कर और अंत तक उपस्थित रहकर ये साबित किया की इनके क्रन्तिकारी वचनों से कोई भी वंचित नहीं  रहना चाहता था !! आपने 10 दिनों में हर दिन विभिन्न  विषयों पर चर्चा की और आपकी चर्चा के  विषय के केंद्र बिंदु थे जन्म, मृत्यु, कर्म, धर्म, जप, तप, आत्मा, परमात्मा, आराधना एवं इंद्रियों पर संयम  !! जिसमे कर्म प्रधान धर्म करने की प्रेरणा आपने दी !!    हर एक  दिन हर एक विषय पर आपकी चर्चा सराहनीय है और उनके साथ जो छोटे-छोटे उदाहरण के तौर पर आप जो कहानी सुनाती थी जिसमे नटवरलाल रूपी पात्र को केंद्रित कर विभिन्न मार्मिक विषयों की चर्चा की  वह दिल को छू लेने वाली होती थी !! जिससे कोई भी आपके द्वारा कहे गए सरल भाषा में गीता उपदेश को बड़ी सरलता से अपने भीतर उतार रहा था !! इसकी अमिट छाप आपके वचनों द्वारा सबके ह्रदय में बस चुकी है ।

आजतक हमने साधू - संतों के श्रीमुख से  गीता उपदेश के अमृत वचनों को श्रवण किया था और ऐसा प्रतीत होता था कि इन पर अमल करना  हमारे वश की बात नहीं है !!  लेकिन श्रीमती बीना जी ने गृहस्थ रहते हुए जिस सरलता से गृस्हथ जीवन के अनुसार गीता के उपदेशों का जो सूक्ष्म आंकलन एवं विश्लेषण किया है सभी गृहस्थों के जीवन में बहुत ही उपयोगी साबित होगा ।  हम  सब को लगा की गीता उपदेश को जिस सन्दर्भ में श्रीमती बीना जी ने अपने क्रन्तिकारी विचारों द्वारा आज के समय में परिलक्षित किया है उसपर अमल करना इतना कठिन नहीं है जितनी भ्रान्ति आजतक हमारे मन में बैठी हुई थी ।

गृहस्थ के  जीवन को साधू के जीवन से कठिन बताते हुए उन्होंने कहा की हममें से सभी अपने - अपने स्थान पर अर्जुन है और अपने अंतर्द्वंद से उबर कर अपने कर्म प्रधान जीवन को सफलता पूर्वक जीने की कला सीखनी है। अपने हर कर्म में ईश्वर के उपस्थित होने आभास के साथ करने से हम अनेकों प्रकार के  पाप कर्मों से बच सकते है । उन्होंने ये भी कहा की मनुष्य अगर अपनी कथनी और करनी में समानता ला सके तो उसका जीवन स्वच्छ एवं निर्मल बन सकता है । उनका कहना है की अपने कर्म को ईश्वर को अर्पित करना ही सर्वोपरि भक्ति है।

श्रीमती बीना जी ने बताया की किस  प्रकार गृहस्थ व्यक्ति अपनी सीमाओं में रहकर भी अपने सुकर्मों द्वारा पहले साकार फिर निराकार ब्रह्म की उपासना कर सकता है । श्रीमती बीना जी ने जप के प्रकार एवं वैज्ञानिक तरीके से जप आराधना के रहष्य को बताया !! जप करने से औरा ऊर्जा परतों का बनना और हमारी सुरक्षा में उन ऊर्जाओं का कार्य करने की वैज्ञानिक उप्लभ्धियों की सत्यता पर भी प्रामाणिक चर्चा की । समय की मांग अनुसार भावी पीढ़ी के साथ सामंजस्य बैठाने के लिए हमें निरंतर अपने स्वभाव में बदलाव करना जरूरी है ।

श्रीमती बीना जी के अनुसार हमें यह दुर्लभ मनुष्य जन्म अपने स्वभाव की जड़ता को बदलने के लिए मिला है अगर हम इस जन्म में अपने स्वभावगत दुर्गुणों को बदल कर सद्गुणों का आचरण करते हैं या करने में सक्षम होते हैं तो हमारा आने वाला जन्म बहुत ही सुखद एवं निर्मल हो सकता है। इसके सार के अन्तर्गत उनका कहना है कि हमें अपनी देव्य वृत्तियों के द्वारा आशुर्य वृत्तियों को हराना है और  आत्मकल्याण के पथ पर आगे बढना है। श्रीमती बीना जी के विचारों के अनुसार हिंदू सनातन धर्म के अंतर्गत अंतर्जातीय विवाहों की श्रृंखला में आज के समय की मांग के अनुसार परंपराओं में बदलाव करने पर विचार करना जरूरी है बशर्ते हमारे मूल संस्कार एवं संस्कृति पर कोई आंच ना आए । उनका यह कहना है कि गृहस्थ व्यक्ति को सर्वदा सजग रहकर अपने हर संबंध अनुसार अपनी सीमाओं में रहते हुए अपने सभी संबंधों का निर्वाह बड़ी ही सजगता से करना होता है !! फिर वह रिश्ता चाहे पति-पत्नी का हो या भाई-बहन का हो या मां-बेटे का हो या भाई-भाई का हो या पिता-पुत्र का हो या फिर अपने पड़ोसी और पड़ोसन के साथ हो व्यक्ति को सभी रिश्तो में अपनी सीमाओं का निर्धारण कर बड़ी ही सजगता पूर्वक उनका निर्वाह करना होता है।

बीना जी का कहना है कि हमारे किए हुए कर्मों के फल पर हमारी भावनाओं का बहुत बड़ा असर पड़ता है जिस सोच से हम अपने कर्म को करते हैं उस सोच का उस कर्म के फल पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है । भले ही उस कर्म को करते समय हम बाहरी तौर पर दिखावा करते हैं कि हमारी सोच बहुत शुद्घ है पर भीतर से हमारे मन में अगर कपट रहता है तब उस कर्म का फल हमें बुरा ही मिलने वाला है ।  अंततः हमारे किए हुए कर्मों के पीछे की श्रद्धा ही हमारे कर्मों के फल का निर्धारण करती है ।

उनके अनुसार भगवद गीता के सार का ज्ञान लेने एवम् वहन करने का सही समय हमारी युवा अवस्था है । इसी अवस्था में हमारे भविष्य के निर्माण का निर्धारण होता है । बीना जी का यह भी कहना है कि गृहस्थ जीवन हर तरह से तपोभूमि है।  गृहस्थ जीवन में शारीरिक तप सबसे ज्यादा होता है । परन्तु वाणी के तप एवं मन के तप को उन्होंने सबसे प्रमुख बताया है ।  अपनी वाणी को नियत्रण में रखने का जो तप है वह सर्वोपरि है। मन के तप की आवश्यकता पर भी उन्होंने बहुत ज़ोर दिया है । उनका कहना है कि अपने मन के शुद्धिकरण के तप से ही हमारी आत्मा के परमात्मा से मिलन के द्वार खुलेंगे। दान करने की महत्वता में उनका कहना है कि दान देने के पीछे की हमारी भावना एवम् दान में दी जाने वाली वस्तु उसी प्रकार की होनी चाहिए जो हम खुद उपयोग में लेते है । जिस प्रकार अर्जुन ने समर्पण भाव से अपने आप को श्री कृष्ण को समर्पित कर गीता के ज्ञान को शिरोधार्य किया ठीक उसी प्रकार हमें गीता के सार को अपने जीवन में व्यवहारगत तरीके से ग्रहण करें ।

भौतिक इच्छाओं ने मनुष्य को नहीं जकड़ा  है अपितु मनुष्य स्वयं अपनी भौतिक इच्छाओं के वशीभूत होकर उन्हें नही छोड़ पा रहा है। इन सब के सार में उनका कहना है कि मृत्यु के बाद का मोक्ष हमने नहीं देखा है हमारे अपने जीवन काल में हमें मोक्ष की अनुभूति करनी है । अपने जीवित काल में मोक्ष की प्राप्ति के लिए अपने सद्गुणों को जागृत कर आत्म कल्याण के पथ पर अग्रसर होना है । जैसे जैसे जीवन के अंतिम पड़ाव में आएं  हमें पूर्ण शांति एवं त्याग की स्थिति में आ जाना चाहिए।

 वही मोक्ष का सच्चा स्वरूप है।  न किसी से कोई अपेक्षा और ना ही किसी से कोई कामना फिर वह किसी वस्तु की हो या किसी व्यक्ति विशेष से हो।  अपने जीवन काल के अंतिम समय में सांसे चलती रहे और अपनी समस्त इच्छाएं समाप्त हो जाएं इसी में वास्तविक मोक्ष की अनुभूति है। हमें अपने सभी कर्मों को धर्म और नीति के अंतर्गत करते हुए अपनी आत्मा को उत्तम बनाना है, पुरुषोत्तम बनाना है, सर्वोत्तम बनाना है ।