यहां में घरों में नहीं देवालय में मनती है सामूहिक दिवाली
सामूहिक दीपावली की दीर्घकालीन परंपरा को आज भी जीवित
डा. जगदीश शर्मा, मंडी (हिमाचल)
हिमाचल की वादियों में आज भी अपनी परंपरा का ऐतिहासिक महव देखा जाता है। दुनियां में देवभूमि के नाम से जानी जाने वाली हिमाचल प्रदेश की धरती पर आज के आधुनिक युग में भी अपनी परंपरा की पहचान को नहीं खोया है। आधुनिकता के इस दौर में आज भी हिमाचल के लोग अपनी पूजा को महत्वे देते है और आधुनिकाता के बावजूद अपनी परंपरा को कायम रखा है। हिमाचल की ऐतिहासिक धरती की नगरी पांगणा से दो किलोमीटर दूर खलेडी खड्ड के तट पर बही-सरही धार के आँचल में बसा एक छोटा सा ऐतिहासिक गांव है सुंई। जहां पर घरों को रौशन करने वाली दिवाली की पंरपरा को कायम रखते हुए लोग घरों में नहीं बल्कि अपने देवालय में मनाते हैं। जहां पर तीन दिवसीय महोत्सलव जैसा माहौल होता है और परिवार के सभी सदस्यस अपने भगवान की पूजा करते हैं दीवाली के उत्सेव को मनाते हैं। सुंई के अधिकतर बाशिंदे सरही गांव ही से आए हैं।
प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर सुंई गांव समुद्रतल से 1296 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। गांव की आबादी लगभग 300 है। गांव में ऐतिहासिक व प्रसिद्ध गींहनाग जी का चबूतरा है। सुंई वासियों ही नहीं अपितु पूरी "हार" में गींहनाग जी अत्यंत पूजनीय हैं। सुंई गांव में दीपावली मनाने की परंपरा अनूठी है। जहाँ प्रदेश-देश और विश्व भर में लोग अपने-अपने घरों में दीवाली का आयोजन करते हैं वहीं सुंई वासी अपनी पुरानी परंपराओं,रीति-रिवाज के अनुरूप गींहनाग जी के रथ की उपस्थिति में रातभर दीपावली का आयोजन करते हैं। दीपावली की रात को सामूहिक दीपावली के इस आयोजन के लिए सैकड़ों श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ती है। सुंई निवासी सेवानिवृत कानूनगो अगरसिंह जी का कहना है कि दीपावली के इस अवसर पर पहले-पहल देवता के देवलु अपने-अपने घरों से रोटियां लाकर रात्रि भोजन करते थे। धीरे-धीरे यह परंपरा टूट गई, फिर देवलुओ को सुंई गांव के हर परिवार में रात ओर अगले दिन का भोजन परोसा जाता। आज गांववासी देवलुओ को प्रेम पूर्वक एक ही स्थान पर सामुहिक योगदान से स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था करते हैं। इस सामुहिक दीपावली के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है। जिस स्थान पर सामुहिक दीपावली का आयोजन किया जाता है वह स्थान चारों ओर से खुला आँगन है। संध्याकाल से पूर्व देवता अपने देवलुओ के साथ जब दीपावली के इस स्थान पर पहुंचते हैं तो देवरथ के अपने चबूतरे पर विराजमान होने के बाद गांव की महिलाएं देवता को अपने ईष्टरुप में मानकर पारंपरिक गीत गाते हुए देवरथ की धूप-दीप-हार-श्रृगार,अन्न-धन,से पूजा-अर्चना कर देव श्री के चरणों में माथा टेककर स्वयं को धन्य करती हैं।
गोधुली के समय देव वाद्ययंत्रों के साथ "ठूंडरू"गीतों का गायन करते हुए लकड़ी के विशाल ठेले लाकर निश्चित स्थान पर शुभ वेला में रातभर जलने वाले अलाव को प्रज्जवलित किया जाता है। देवता की संध्या आरती,उपासना और रात्रि भोजन के भोग अर्पित करने के बाद "देवबेड़" का आयोजन कर देव गणों को रक्षार्थ जागृत किया जाता है तथा देव गीतों के साथ "ढैन्फणी" वाद्य की मधुर स्वर लहरियों के साथ देव शयन की प्रक्रिया पूरी की जाती। बेड़ व देव शयन के बाद रात भर श्रद्धालुओं का मनोरंजन करने के लिए लोक नाट्य "बांठड़ा"का आयोजन होता।लेकिन अब ग्राम्य संवेदना से ओत-प्रोत बांठड़ा कहीं भी देखने को मय्यसर नहीं होता।अगले दिन प्रातःकाल देवधुन के साथ नाग-देवता को जागृत कर-स्नान,पूजा-अर्चना कर दोपहर को आयोजित झाड़ा उत्सव में दूर-दूर से लोग यहाँ "पूछ" पाने व अपनी मन्नौतियां चढ़ाने यहाँ आते हैं। दोपहर बाद देवरथ नृत्य का दृश्य सभी को भाव-बिभोर कर देता। पारंपरिक वस्त्रों में सजी गांव की महिलाएं नृत्य करते देवरथ पर अखरोट,दाड़ु,लैचीदाना (जैम्भल) अर्पित कर स्वंय को धन्य करती हैं।देवरथ पर अर्पित इन दानों को प्रसद रुप में ग्रहण करना बहुत शुभ माना है। नृत्य के बाद देवरथ अपने देवलुओ,वाद्ययंत्र के बजंत्रियों के साथ अपनी सरही गांव में स्थित देवकोठी को लौट जाते हैं। डाक्टर हिमेन्द्र बाली हिम, डाक्टर जगदीश शर्मा और व्यापार मंडल पांगणा के अध्यक्ष सुमीत गुप्ता का कहना है कि इस तरह से सुंई गांव की सामुहिक दीपावली आज भी बड़े सहज रूप में एक बड़े उदार मानवीय जीवन की दृष्टि को लेकर आपसी प्रेम और सहयोग की विशिष्ट पहचान तो बनी हुई है साथ ही साथ नई पीढ़ी को भी समृद्ध देव संस्कृति और परंपराओं के संरक्षण की प्रेरणा प्रदान कर रही है। गींहनाग जी सुंई क्षेत्र के अंतर्गत काटल में आयोजित होने वाले तीन दिवसीय मेले में या प्रभाव क्षेत्र की परिक्रमा के लिए जब भी आते हैं तो सुंई के इस चबूतरे/थले पर जरूर विराजमान होते हैं तथा अपने तेजबल से "परजा" की रक्षा का वचन देते हैं।