न्यूज भारत, सिलीगुड़ी: गांव की गलियां हो या शहरों की चकाचौंध हर जगह की अपनी-अपनी सोच होती है। उन्हीं सोच और सपनों के लिए अपनी मंजिल की ओर बढ़ना और रास्ते बनाना ही व्यक्ति की सही पहचान होती है। दर असल में प्राचिनकाल से ही गांवों में लड़कियों को सिर्फ शादी-विवाह का बंधन और घर की चूल्हा-चौकी तक सीमित होता था, परंतु देश बदला और सोच बदल तो गांव की गलियों में भी लड़कियों को पंख लगने लगे है। हलांकि शिक्षा के बाद गावों की सोच बदली और अपनी ‘’साधना की शख्शियत’’ से गांव की गलियां भी अब रचनाओं की गूंज भी सुनाई देने लगी। ‘’ बचपन एक छोटे से गांव में बीता, जहां लड़कियों को पढ़ाना-लिखा दूर की बात, उन्हें बोझ समझ कर कम उम्र में ही शादी बंधन में बांधना ही अकलमंद माना जाता था। पर अब समय के साथ हालात बदल रहे हैं। मुझे पढ़ने की ललक बचपन से थी, परंपरों को तोड़ माता-पिता ने मुझे पढ़ने का अवसर दिया और मैंने भी मन में ठान लिया, कि कुछ करके दिखाना है। मातृभाषा राजबंशी, क्षेत्रीय भाषा बंगाली होते हुए भी हिंदी की ओर रुझान रहा । शिक्षा ग्रहण करने के बाद दिनहटा हिंदी हाई स्कूल में असिस्टेंट टीचर के के पद में हूं। अभी माहौल बदल रहा अब गांवों की सोच बदल रही है और गांव में लड़कियो को पढ़ने का अवसर दे रहे हैं। हलांकि बचपन से लेकर अब तक एक हाई स्कूल की शिक्षिका बनने तक का सफर काफी कठिन रहा। यहीं से मेरी रचना-संसार की शुरुआत होती है । वर्तमान समय में भी कुछ ना कुछ लिखने का प्रयास करती रहती हूं जैसे नारी की समस्या,समाज की विडंबना, प्रकृति की सुंदरता आदि’’। ‘’ मीरा सिंह, सिलीगुड़ी’’
चिड़िया बनने की चाह
बार-बार और हर बार, मैं चिड़िया बनना चाहती,
थी, मुक्त नीले गगन की।
सपनों को जीना चाहती थी लेकिन उड़ने से पहले ही,
कांटा गया मेरे पंखों को,
बार-बार और हर बार, औरत जात जो हूं,
समाज के पिंजरे की मैना फिर किसे कहा जाता?
बार-बार और हर बार, मैं उड़ना चाहती थी।
तोड़ना चाहती थी जंजीरों को, दफन करना चाहती थी,
गुलामी की बेड़ियों को,जलाना चाहती थी कुरीतियों को।
बार-बार और हर बार, मैं बनना चाहती थी सुंदर गीत,
नियम-कानून छंद से मुझे तोड़ा गया ,
किसी पुराने पन्ने की तरह आग में झोंका गया।
बार-बार और हर बार मैं पढ़ना चाहती थी,
कुछ बनना चाहती थी , सीखने की आश लिए,
फटी-पुरानी किताबों को, फटी-पुरानी वस्त्र में,
जिसमें अभी मुझे इतिहास बदलना है,
स्त्री के कमजोरी को मिटाना है, नए पन्ने में अस्तित्व सजना है।
बार-बार और हर बार, हमारे लिए सीमाएं बनाए गए,
बांधा गया पांव में बेड़ियां ,डाला गया चार दीवारों में,
बार-बार और हर बार, भूल गया है सारा संसार,
सहना इसकी शक्ति है ,प्यार ममता जिसकी पहचान।
पंछी की आजादी को देख ख्याल आया,
पिंजरे की दीवार तोड़ यह भी तो बाहर आया ।
छोटे से जीव ने सही कितनी कठिनाई,
तभी तो वह आज स्वतंत्र हो पाई ,
मैं भी तो हूं शक्ति की परछाई ।