न्यूाज भारत, सिलीगुड़ी : ‘’ कश्मकश, है ख्वाबों की, मुझे अब जगाते सोते। मैं सजदे रोज करता हूं, मगर पूरे नहीं होते।‘’ लेकिन जो सपनों को सोते जागते देखने की कोशिश करता है, उसे उसके ख्वाब पूरे होने से कोई रोक नहीं सकता। समय के साथ अगर सपनें पूरे करने की कोशिश और सच्चीं ‘साधना हो तो मंजिल एक ना एक दिन मिल ही जाती है। रचनाओं को पूरा करने के लिए अगर प्रकृति का सौंर्दय साथ हो तो रचनाओं में चार चांद लग जाता है। पड़ोसी देश नेपाल की राजधानी काठमांडू में बसी ‘’ अंजू डाकुनियां’’ ऐसी ही एक "साधना की सख्शियत " है | उन्हें काव्य के प्रति सच्ची रूचि प्राकृतिक सौंदर्य की छांव ने दी।‘’बचपन में फूलों से रंग चुराकर अपनी पेंटिग बुक में रंग भरना, उड़ती तितलियों के पीछे भागना कल्पनाओं के सागर में डूबना और यह तमन्ना रखना की कभी मेरे सपनों को पंख मिले तो उड़ जाऊँगी । लिखने की शुरूआत अपने घर के सदस्यों पर कविताएँ लिखने से की। विवाह के बंधन में बंधते ही उसके साथ हज़ारों रिश्तों के हिस्सों में बँट गई। बावजूद इसके कवयित्री की भावना हिलोरें खाती रही, समय ने करवट ली बच्चों के बड़े होने पर खालीपन आ गया, उसी खालीपन को साहित्य के प्रेम से भरने का संकल्प किया, और फिर निकल पड़ी अपने सपनों की ओर मंज़िल की तलाश में ।‘’ अँजू डोकानिया काठमाण्डू ( नेपाल)!
मैं अक्सर अपने दिल की मान लेती हूँ
मैं अक्सर अपने दिल की मान लेती हूँ|
छोटी-छोटी ख्वाहिशों में ढूँढ लेती हूँ खुशियाँ ,
वो बचपन का झूला मन गंगा की लुटिया|
वो पूजा की घंटी, वो मोगरे की बंडी,
वो फूलों से शोखी ,वो सीपी से मोती
पल भर में छान लेती हूँ,
मैं अक्सर अपने दिल की मान लेती हूँ|
वो अल्हड़ सा बचपन,वो लहँगे पे अचकन,
वो माटी की हाँड़ी,वो काका की दाढ़ी|
वो माँ का आँचल,लगाती नज़र का काजल|
मधुर स्मृतियों के कुछ लम्हें आँचल में बाँध लेती हूँ,
मैं अक्सर अपने दिल की मान लेती हूँ|
कस्तूरी हृदयंगम, सुरों का मधुर संगम,
वनों की सघनता,हिरणी सी चपलता|
उड़ूँ मैं पतंग सम, पर बँधी डोर मन संग|
इन संवेदनाओं पर जान देती हूँ,
मैं अक्सर अपने दिल की मान लेती हूँ|
बताना मैं चाहूँ जताना मैं चाहूँ,
भरे भाव मन के दिखाना मैं चाहूँ|
ये धरती नहीं सोई सदियों से देखो,
ज़रा दे के थपकी सुलाना मैं चाहूँ|
नसों में है सोये पड़े कीट तम के
तो लोरी राष्ट्र हित की सुना जगने का भान देती हूँ,
मैं अक्सर अपने दिल की मान लेती हूँ|