मन के कुंठाओ की अभिब्यक्ति है काव्‍य की रचना...

साधना की शख्शियत-42

पवन शुक्‍ल, सिलीगुड़ी

शब्दों और रचनाओं एक अलग तरह की कसक होती है, परंतु वह स्वयं को पहचान नहीं पाता है। लेकिन उनकी इस प्रतिभा को मित्र, गुरू, की कहीं बात मन की प्रेरणा को और मजबूत क़र देती है और व्‍यक्‍त‍ि जीवन के एक नए पड़ाव, एक नयी मंजिल की ओर कदम बढ़ता है। इसी तरह अपनी " साधना शख्सियत" से आगे बढ़ता है। काव्‍यों के प्रति रूच‍ि किसी बड़े घराने से नहीं मन के अंतर पटल से पैदा होती है। जिसने भी काव्‍य और साहित्‍य को अपने मन के अंतर पटल से संकल्‍प लेता है वहीं धीरे-धीरे काव्‍य की गंगा में डुबकी लगाने के बाद धीरे-धीरे अपनी रचनाओं को बेहतर धार देता है। आज न्‍यूज भारत अपने इस अभियान की कड़ी को आगे बढ़ते हुए देश के एक और चाय बगान के युवा होनहार काव्‍य रचनाओं को आपके सामने ला रहा है। उम्‍मीद इस कव‍ि को एक नई पहचान के साथ आगे बढ़ने में सहायक होगी।

साहित्य के प्रति रुझान शुरू से ही रहा, यही कारण था कि विद्यालय जो की मैंने उत्तर लोथबाड़ी हिंदी हाई स्कूल से पूरी की, वहाँ भी अपनी छोटी छोटी कविताओ के माध्यम से दोस्तों व अधयापकों को सुना कर अनुग्रहित होता रहता था।विद्यालय शिक्षा के समाप्ति के पश्चात महाविद्यालय में मैंने हिंदी को ही अपने आगामी अध्ययन के विषय के रूप में चुना । सिलीगुड़ी महाविद्यालय में शिक्षा अध्ययन के दौरान मैंने महसूस किया के कविता मात्र ह्रदय के सुखद भावों की अभिव्यक्ति नहीं है, अपितु यह जीवन के जटिलताओं, ह्रदय व मन के कुंठाओ की भी अभिब्यक्ति है। अध्ययन के दौरान विविन्न कवियों, रचनाकारों , लेखकों व उनकी रचनाओं से रू- ब- रु होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इन सभी ने जीवन के वास्तविकता को अपने कलम के माध्यम से जैसे जीवंत कर दिया है। इन सभी महानुभाओं में से विशेष रूप से मैं धूमिल तथा नागार्जुन से प्रभावित हुआ, यही कारण है मेरी इस कविता में भी आपको उनका झलक महसूस हो सकता है। वर्तमानः मैं बिहार के पूर्णिया जिले के अंतर्गत स्थित बिजेन्द्र पब्लिक स्कूल में एक शिक्षक के रूप के कार्यरत हूँ।'' -महाबीर लोहार

"टूटते संबंध"

बैठा था उन्मुक्त होकर

अपने भविष्य के संकल्पनाओं में

तभी हठात एक शोर से विचलित हुआ,

मैंने देखा सभी जगह, पर कही कुछ न था।

हठात, मैंने महसूस किया कि यह शोर बाहर से नहीं,

बल्कि मेरे अंदर से था, यह शोर था द्वन्द का

द्वन्द था रक्त और शरीर रूपी मन का

रक्त चित्कार कर रहा था , अपने अस्तित्व के लिये ,

अपने सम्मान के लिए अपने सुरक्षा के लिए

दूसरी और रक्त के स्वर में दर्द था ,

व्यथा थी, और एक आशंका थी कि क्या वह

अपने संबंध की लाज रख पाएगा,

जो उसमें पुरखों से चली आ रही है, दूसरी ओर मन

के स्वर में भी उदग्निता थी, वह भी दुखी था ,  

बदलते  परिस्थति  में

खुद की पहचान को बनाये रखने के

द्वन्द से वह भी थक चुका था ,

और

अपने परेशानियो के क्रोध को रक्त पर दर्शा रहा था।

मैं खड़ा इस द्वन्द को देख रहा था और

इसमें अपने संबंधों के टुटते रूप को महसूस

कर रहा था ।

पर मैं अहसहाय था, कुछ नहीं कर

पा रहा था , क्योंकि ये दोंनो मेरे ही अंश थे ।

महाबीर लोहार

चुआपाड़ा चाय बागान