आसमान में उड़ने की परिकल्पना...

साधना की शख्शियत-41

पवन शुक्‍ल, सिलीगुड़ी

बचपन से आसमान में उड़ने की परिकल्पना ! लेकिन ग्रामीण परिवेश, सब कुछ सामान्‍य नहीं, ऐसे में काश: पंख होते, और परिंदों की तरह आकाश में उड़ने की तमन्ना मन लिए जब कोई जीवन की उंची उड़ान के सपने देखता है, तो पूरा करने की परिकल्पनाएं भी जन्म लेती है । हालात और बचपन की मज़बूरियां, सपनों को पंख नहीं देते, इसके लिए स्‍वयं सपनों को पूरा करने की चाहत रखनी होती है। वहीं अगर दिल ठान ले तो सफलताएं अवश्य ही मिलती है। बस जरूरत होती है उसे पाने की ललक और पूरा करने की ज़िद । हलांकि कभी-कभी ज़िद इंसान को अधूरे सपनें देते है, लेकिन पाने की जिद में अगर " साधना की शख्सियत" है तो सफलताएं अवश्य कदम चूमती है। आज के इस  वें भाग में हम फिर उसी शख्सियत की बात कर रहे है जिनका नाम है "शिबानी प्रसाद" ।

''जलपाईगुड़ी जिले के नागराकाटा ग्राम क्षेत्र से मैंने अपनी प्राथमिक शिक्षा "नागराकाट हिंदी हाई स्कूल" एवं उच्च माध्यमिक शिक्षा चम्पागुडी के "संत कंपनियां गर्ल्स हाई स्कूल" में हुई। स्नातक की पढ़ाई मालबाजार के "परिमल मित्र स्मृति महाविद्यालय" से पुरी की इसी महाविद्यालय के शिक्षक द्वारा प्रोत्साहन से मुझे कविता लिखने की प्रेरणा मिली और साहित्य के प्रति मेरा रूझान आया। इसके बाद हिन्दी 'स्नातकोत्तर' की शिक्षा "उत्तर बंग विश्वविद्यालय" से किया है। मुझे बचपन से ही साहित्य में रुचि थी पर सबसे पहले 'सूर्यकांत' जी की कविता 'भिझुक' ने मुझे बेहद प्रभावित किया साथ ही 'प्रेमचंद' जी का उपन्यास ने भी जो हमारे कक्षा के पाठ्यक्रम में है, इसी उपन्यास ने मुझे पढ़ने में रुचि दिलाई और हिंदी साहित्य पढ़ने पर विवश किया। हिंदी एक ऐसी समृद्ध भाषा है जो भारत के हर क्षेत्र के अलावा दुनिया के की देशों में बोली जाती है। हिंदी भारत की राजभाषा तो बन गई पर इसको राष्ट्रभाषा बनाने की भी आवश्यकता है, क्योंकि इससे अधिक समृद्ध और कोई भाषा नहीं।''

खानदानी मजदूर...

खानदानी मजदूर

 लिखना आता है मुझे,

नियत भी पढ़ लेंता हूं

ऐसा कोई काम नहीं जो,

मैं न कर लेता हूं 

मजदूर का बेटा हूं जनाब

मजदूरी ही कर लेता हूं

पैसे भी मिल जाते हैं

पेट भी पल जाता है

औरहन भी सुन लेता हूं

काम भी चल जाता है

मिलता नहीं बस हक़ मेरा

पहचान खोता सा जाता है

मजदूर ही तो हूं

क्या किसी का जाता है?

हर मेहनत में बसता हूं

श्रम मुझसे ही तो आता है

छाले पड़े इन हाथो से मैं

रोज परिवार का भार उठाता हूं

मजदूर का बेटा हूं जनाब

मजदूरी करके ही खाता हूं

क्या देखा है तुमने मुझे कभी?

मैं तुम जैसा ही दिखता हूं

पीठ पेट को लगा है बस मेरा

पसीने में ही रहता हूं

मजदूर का बेटा हूं जनाब

मजदूरी ही कर लेता हूं

त्याग दी है निन्दा मैंने

कहां छोड़ा सपने देखना

चलना है तो पैदल भी चल दूंगा

चाहे जितना पड़े चलना

मजदूर हूं नेता नहीं

सह लूंगा जितना पड़े सहना

गृह,धन,देह से

दरिंदों भले रहता हूं

पर हौसलों की आंच पर

जीवन का तप करता हूं  

हां! मैं मजदूर हूं

क्योंकि मैं मजबूर हूं

इसलिए तो मजदूर हूं।

          शिबानी प्रसाद, नागराकाटा