साधना की शख्शियत-39
पवन शुक्ल, सिलीगुड़ी
जीवन में संर्घष के साथ बढ़ने वाला ही लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। संर्धष के साथ मिलने वाली मंजिल बहुत ही सुखद होती है। काव्य और साहित्य के साथ जुड़ाव अक्सर उनके पास होता है जो पारिवारिक विरासत की पहचान होते है, लेकिन अक्सर यही देखा जाता है। लेकिन अगर कोई भी व्यक्ति जिसकी परिवार में दूर-दूर तक काव्य या साहित्य से कोई मतलब नहीं होता। सिर्फ दो जून की रोटी के लिए गिरमिटीय मजदूरों की तरह प्रत्येक दिन लगे रहे, तो वहां काव्य की कल्पना एक सूर्य को दिये दिखाने जैसे होता है। लेकिन जब उन्ही गलियों से कोई अपनी लगन से पढ़कर हिन्दी की काव्य या साहित्य की दुनियां में कदम रखता है तो काबिले तारिफ होता है। जबकि उसकी मातृभाषा कुड़ुख़ हो आदिवासी समाज में बोला जाता हो। हम बात करते हैं आदिवासी समाज में उभर रही प्रतिभाओं की जो चाय बगानों की धूप से तप कर साहित्य की ओर रूख कर रहे युवा व युवतियों की। एक सबसे अहम बात यह है कि मंच या सही स्थान नहीं मिलने के बावजूद भी जब व्याक्ति संर्घष से आगे अपनी मंजिल की ओर बढ़ता है, तो वही व्यक्ति के ''साधना की शख्शियत'' होती है। बचपन से अपने समाज के विकास के बारे में सोचने के साथ ही कल्पनाओं के सागर में श्रृंगार रस, प्रेम और सौहार्द की रचानओं पर ध्यान एकाग्रचित करना और उस रचनाओं को पन्नों पर उतारना भी एक कला है। ऐेसी ही एक आदिवाासी समाज की अध्यापिका प्रफुल्ला मिंज ने भी अपने संर्घष को जारी रखा। अपनी मंजिल पाने की ललक, अपने आदिवासी समाज में सुधार की चिंता को लेकर शोशल मिडिया का सहारा लेकर अपने को एक लक्ष्य तक पहुंने की जो भूख है वह काबिले तारिफ है।
'' सिलीगुड़ी से कुछ दूरी पर गयागंगा चाय बगान(गिरमिट लाईन) की रहने वाली हूं, मेरी मातृभाषा कुड़ुख़ है। मेरी प्राथमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा, मेरे स्थानीय क्षेत्र में ही गयागंगा चाय बगान के सेंट मैरी गर्ल्स हाई स्कल से हुई जबकि स्नातक की डिग्री के लिए (Gossner College Ranchi) रांची झारखंड की ओर रूख करना पड़ा। मैने स्नातकोत्तर की डिग्री उत्तर बंगाल विश्व विवि की और बीएड लोयल कालेज नाम्ची से किया। हिन्दी दुनियां की समृद्ध भाषाओं में सबसे बेहतर है। जिससे मेरा झुकाव भी हिन्दी को ओर हुआ हिन्दी भाषा में कविता, कहानी निबंध एवं आलेख पढ़ने-लिखने में भी रूचि बचपन से रखती हूँ। मैं वर्तमान में सेंट जोशफ गर्ल्स हाई स्कूल कर्सियांग में बतौर सहायक शिक्षिका के रूप में कार्यरत हूँ। आदिवासी समाज के दर्द को देखते हुए मेरी यह कविता है।'
लोग कहते हैं....
लोग कहते हैं, कुछ लोग कहते हैं हमें
ये कैसी बर्बर जाति है जो, जहाँ - तहाँ कहीं भी रुके हुए छी!
कुएं का पानी पीते हैं[ मैं कहती हूँ, हम ऐसे ही हैं
जमीन पर ही यहाँ - वहाँ सोने वाले] बासी, अधपके चावल खाने वाले
पसीने से हरदम लथपथ रहने वाले लेकिन!
कभी किसी का हक ना छीनने वाले हम जैसे भी हैं, खुश हैं
अपनी जीवन - शैली से हमेशा प्रकृति की सेवा करते
फिर भी न जाने क्यों लोग कहते हैं!
असभ्य समाज के नमूने ! साधारण - सा जीवन जीकर
घास - फूस की सब्जियां खाकर, मेहनत से रोजी - रोटी कमाकर
पर, अपना स्वाभिमान बचाकर, लड़ते हैं!
हर रोज एक सभ्य समाज से !
लोग कहते हैं, अजीब है इनका ढंग
आपत्ति हमारे रंग, पहनावे, भाषा और संस्कृति से भी
जबकि सदियाँ बिता दी हमारे पूर्वजों ने
जंगलों, पहाड़ों, और पठारों में] फिर भी संदेह है हमारे होने का
क्या हम मनुष्य नहीं इस भूमि के ?
प्रफुल्ला मिंज, सहायक शिक्षिका
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