मिथिला के कण कण में बसता है साहित्य

पवन शुक्ल, सिलीगुड़ी  
पत्रकारिता और साहित्य में समन्वय स्थापित करने वालों की सूची में एक नाम बिहार के समस्तीपुर जिले के बल्लीपुर गांव में जन्म लेने वाले  ब्रह्मेन्द्र झा का भी आता है। गांव के मध्यविद्यालय में प्राथमिक शिक्षा और गांव के ही उच्च विद्यालय से मैट्रिक तक की पढ़ाई के बाद दरभंगा के सीएम कालेज से उच्च शिक्षा की प्राप्ति की। आठ वर्षों तक दरभंगा के प्रतिष्ठित निजी विद्यालय में बतौर हिन्दी शिक्षक के रूप में सेवा दी। फिर अध्यापन को विराम देकर देश के प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक दैनिक जागरण में सोलह वर्षों तक तथा डेढ़ साल तक प्रभात खबर में पत्रकारिता की। परिस्थितिवश 2017 में  दिल्ली जाने के बाद वहां हिन्दी साप्ताहिक राजनीतिक तरकस में बतौर उप संपादक और संपादक के रूप में सेवा दी। वर्तमान में हिन्दी मासिक विचार सहचर के संपादक हैं। दरभंगा में पत्रकारिता के दौरान साहित्य, समाज और संस्कृति से अटूट रिश्ता रहा। इस दौरान दरभंगा जिला प्रशासन द्वारा प्रकाशित स्मारिका दर्पण,आध्यात्मिक पत्रिका श्यामा संदेश के संस्थापक संपादक मंडल में शामिल रहे। आध्यात्मिक पत्रिका वर्धमान के संपादक के साथ ही सहित्यिक पत्रिका'सुमन स्मरणिका'के प्रबंध संपादक रहे। हिन्दी एवं संस्कृत में प्रकाशित स्मारिका स्मृति नमन के संस्थापक संपादक के रूप में 3 अंको का प्रकाशन किया। आकाशवाणी दरभंगा से हिंदी एवं मैथिली में वार्ताओं का प्रसारण। साहित्य अकादमी नई दिल्ली की ओर से आयोजित राष्ट्रीय सेमिनारों में सहभागिता रही दरभंगा जिला प्रशासन की ओर से आयोजित सेमिनारों में सहभगिता। मातृभाषा मैथिली में कथा संग्रह अपन के का प्रकाशित है। हिंदी और मैथिली में प्रकाशित पत्रिकाओं में दर्जनों आलेख प्रकाशित है। दरभंगा जिला प्रशासन की ओर से हिंदी सेवा सम्मान, मिथिला विकास परिषद कोलकाता की ओर से सुरेंद्र झा सुमन पत्रकारिता सम्मान तथा हरिमोहन झा स्मृति सम्मान से भी सम्मानित हो चुके हैं।


हे मुरलीधर! हे गिरिधर !

हे मुरलीधर! हे गिरिधर ! कौरव गए, गया कंस,
फिर भी शेष रह गया, धराधाम पर कुछ अंश।
हे केशव! हे माधव! व्यथा वेदना का दंश
झेल रही है वसुधा, तज दो अपना रंज।
हे वंशीधर! हे लीलाधर! अब क्षमा करो मेरी भूल
विपदा के कंटक काल में खिला दो संपदा के फूल।
हे मधुसूदन! हे नारायण! माना कि भक्ति मेरी
रह गई है अधूरी पर तुम तो नहीं करते
भक्त से खानापूरी।
हे दवकीनंदन! हे यशोदानंदन!
करता हूं तेरा पदवंदन छोड़ो चतुर्मासी शयन
खोल लो थोड़ा नयन, व्याकुल है वसुधा संग गगन।
        ब्रह्मेन्द्र झा, नइ दिल्ली,  कृष्णाष्टमी, 2020