चाय के स्‍वाद से निकला कविता का रसपान-ओ संगी

साधना की शख्शियत-37

पवन शुक्‍ल, सिलीगुड़ी

साहित्‍य की कल्‍पना किसी जाती-धर्म या समाज से नहीं होती। भारत के साहित्‍य एक ऐसी विधा है जो चाहे किसी भी गांव की गलियां हो, शहरों का चकाचौध और बंगाल में या चाय के बागान हो। अगर सपनों का लक्ष्य एक है। संकल्पों के सपनों को पूरा करना है, तो जीवन की राह में आने वाली हर बाधा उसके सपनों को पूरा करने से रोक नहीं सकती। इंसान जब सपनों की दुनियां में डूबता है, तो लक्ष्य एक हो, हलांकि कुछ पल के लिए सपनें अधूरे दिखते जरूर हैं, लेकिन वास्तव में वह अधूरापन उसे सपनों की मंजिल की तरफ लेकर जाता है। लक्ष्य की पूर्ती के लिए जिंदगी इम्तिहान भी लेती, लक्ष्यं की प्राप्ति का संकल्प अगर सच्चे मन से हो पूरा अवश्यक होता है। साहित्य के क्षेत्र में लक्ष्य के सपनों को पूरा करने के लिए मन की भावना को काव्य रचना का रूप देने के लिए साधना की जरूरत होती है। जब काव्य रचना किसी भी प्रकाशन के मूल से जुड़ जाता है तो वहीं उसकी ‘ साधना की शख्शियत’ की पहचान बनती है। आज न्‍यूज भारत एक ऐसे युवा कवित्री को स्‍थान दे रहा है। जिसके परिवार में कभी भी साहित्‍य की प्ररेणा देना वाला शायद ही कोई हो। उत्‍तर बंगाल के जलापईगुड़ी चाय बगान हल्‍दीबाड़ी में जन्‍मी और प्राथमिक शिक्षा भी उन्‍ही क्षेत्रों से करने के बाद वह सिलीगुड़ी को ओर रूख किया। उत्‍तर बंगाल विवि से हिन्‍दी में स्नातकोत्तर करने के बाद आज वह पेशे से शिक्षिका है और नाम है एमलेन बोदरा। एमलेन ने अपनी लगन और रूची को ध्‍यान में रखते हुए हिन्‍दी की कविताओं की ओर रूख किया और हो गई ' साधना की शख्शियत' ।

'हिंदी विषय पर अपने स्कूली जीवन से ही रूचि रही है। कविता,कहानी पढ़ने में रूचि है। प्रस्तुत कविता "ओ संगी" मूल रूप से सादरी भाषा में लिखी गयी है।ये उसी का हिंदी अनुवाद है। प्रस्तुत कविता चाय बगान के मज़दूरों के लिए लिखी गयी है।कड़ी मेहनत के बाद भी ये मज़दूर अपने मूलभूत अवश्यकताओं से भी वंचित हैं आज भी बंधुआ मज़दूर की तरह काम करने को विवश हैं,उन्हें अपने अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करने के लिए आह्वान करती है। "उलगुलान "का अर्थ है क्रांति,संघर्ष।'

ओ संगी

     
ओ संगी मेरे
क्यों हो इतने बेबस तुम
क्यों सहते हो अत्याचार चुपचाप
क्यों करते हो गुलामी
पीढ़ी दर पीढ़ी तुम
और कबतक करोगे काम
बनकर बंधुआ मज़दूर तुम
काया तेरी हो गयी है जर्जर
खून भी हो रहा है पानी
सदियाँ बीत गयी खटते-खटते
नहीं है एक बित्ता ज़मीन तेरे नाम
कब तक रहोगे
जीर्ण-शीर्ण खोंपले घरों में तुम
क्यों सहते हो चुपचाप सबकुछ
कहाँ खो गयी आवाज़ तुम्हारी
जो गूंजती थी चारो दिशा
करम सरहुल के गीतों से
और कँपाती थी अखड़ा को भी
भूल गए हो क्या खुद को तुम?
तुमने ही तो, हाँ संगी तुमने ही तो
सजाया है इस धरती को
हरे -भरे चाय बागानों से
चट्टान रूपी धरती को भी
तुमने ही तो बनाया है
स्वर्ग जैसा सुंदर
है भुजा में दम तुम्हारे
सृष्टि नया रचने की संगी
अब उठ भी जा नींद से
है तुम्हारा भी हक़
करने को साकार अपने सपने
कर लो बुलन्द आवाज़ अपनी
पूछने को सवाल और
लेने को हिसाब
कस लो कमर अपनी अब
करने को एक और उलगुलान
कर लो याद संगी तुम
बिरसा आबा का खून हो तुम
ना करना भरोसा अब
गैरों पर तुम कभी
करना होगा तुम्हे ही
उलगुलान हक़ के ख़ातिर अपने
उलगुलान बेहतर जीवन के ख़ातिर
उलगुलान पहचान के ख़ातिर अपने
करना ही होगा तुमको अब
उलगुलान,उलगुलान, उलगुलान।

एमलेन बोदरा, बिन्‍नागुड़ी (जलपाईगुड़ी)