मैं बस अपना हक़ छीनना चाहती हुँ...

साधना की शख्शियत-35

''न्‍यूज भारत सिलीगुड़ी उन सभी प्रतिभावान छात्र-छात्राओं को अपने पोर्टल पर आमंत्रित करता है। जो हिन्‍दी और साहित्‍य के क्षेत्र में रूचि रखते हो। यह जरूरी नहीं है वह पूर्ण साहित्‍यकार हो ही, उसकी कोशिश को हम उड़ान का पंख लगाएंगे। वह कहां तक उड़ सकता है, यह उसकी काबिलियत पर निर्भर करेगा। लेकिन न्‍यूज भारत की कोशिश जारी रहेगी।''   

अपनी मातृभाषा जन्म से होता है, लेकिन किसी दूसरी भाषा पर अपना परचम लहराना व्यक्ति के लगन और उसके ज्ञान पर निर्भर करता है। मातृभाषा नेपाली और क्षेत्रयि भाषा बंगला दोनों भाषाओं इतर, हिंदी पर भी अपनी बेहतर पकड़ रखता है, तो वह उसकी प्रतिभा की साधना होती है। हिन्‍दी की रचनाओं के माध्यम से अपने भावों को पन्नों पर उकेरना और समाज के सामने प्रस्तुत करना भी उसके लगन पर ही निर्भर करता है। अगर गैर हिंदी होने के बावजूद अपनी रचना को हिंदी की काव्य रचनाओं में परोसता है, यह उसकी "साधना की शख्सियत’ होती है। ऐसी ही एक कवित्री 'रितु लिंबु', जो दूर दराज के गांवों से अपनी शिक्षा ग्रहण की और हिन्दी की रचानाओं के माध्‍यम से साहित्‍य के मंजिल की ओर बढ़ रही है। हलांकि साहित्य के ज्ञान की बात करें तो एक बात यही सत्य है। “ करत करत अभ्यास से जड़मत होत सुजान” अगर आज लगन है तो कल साहित्य में भी उसकी पहचान होगी।  

‘ हिंदी स्नातकोत्तर की छात्रा हुँ और उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हुँ। जलपाईगुड़ि ज़िले की एक छोटे से लुकसान ग्राम पंचायत की रहने वाली हुँ। मेरी प्राथमिक शिक्षा गाँव के नन्दलाल सुब्बा स्मृति विद्यालय से हुई, और माध्यमिक और उच्च माध्यमिक की शिक्षा नागराकाटा के सेंट कैपिटानिओ गर्ल्स हाई स्कूल से हुई। स्नातक की पढ़ाई मैंने हिंदी विषय में सिलीगुड़ी महाविद्यालय से पूरी की। हिन्दी साहित्य के प्रति मेरी रुझान बचपन से ही रहा, चाहे वह भाषा कोर्इ भी हो। हलांकि हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपार संभावनाएं है, जो भारत ही नहीं दुनियां के कई देशों में बोली जाती है। मुझे कविता, कहानियाँ और उपन्यास पढ़ने की रूचि बहुत छोटी उम्र से थी। हिंदी साहित्य के प्रति मेरा झुकाव स्कूली दिनों में बढ़ी, उस दौरान प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यास का मुझ पर गहरा असर पड़ा था। उनके रचनाओं में असली भारत की झांकी दिखाई पड़ती है। बाहरी चकाचौंध से दूर भारत का गाँव, उसमें बसने वाले लोग, उनकी विभिन्नताएं तो है, लेकिन पूरी दुनियां की समृद्ध भाषा में हिन्‍दी से अधिक समृद्ध कोई भाषा नहीं है।  

स्त्री हुँ मैं, मुझे स्त्री ही रहने दो

यूँ पुरुषों के बराबर मुझे खड़ा करने की

कोशिश भी मत करना।

खुद ही सामने आ खड़ा होकर

हमने तुम्हें अपने बराबर जगह दी।

यह जताने की कोशिश भी मत करना

नहीं कर पाओगे मेरी बराबरी।

ना मैं तुम सा होना चाहती हुँ,

तुम अपने हिस्से का अधिकार रख लो।

मैं बस अपना हक़ छीनना चाहती हुँ,

छीनना इसलिये चाहती हुँ क्योंकि।

मेरे ही अधिकारों पर कुंडली मार,

मुझे ही बेचना चाहते हो।

अधिकारों को संख्या और,

प्रतिशत में बाँट।  

उसका बंटवारा करना चाहते हो,  

मैंने अगर, माँगा तो तुम जताओगे।

खुद ही दिया तो ज़िन्दगी भर,

अपना रौब जमाओगे।

ऐसी बराबरी से, न बराबर होना अच्छा

सुकून से जीना चाहती हुँ।

मैं बस अपना हक़ छीनना चाहती हुँ,  

नहीं चाहिए आरक्षण, न ही सीटें चाहिए बस में।

चाहिए तो बस सम्मान, सम्मान मेरी राय का।

सम्मान मेरी ना का, सम्मान मेरे होने का।

और यह सब एक तरफ़ा नहीं है,

मैं फेमीनिस्ट हुँ, सुडो फेमीनिस्ट नहीं,

जैसा व्यबहार तुम्हारा होगा, वैसा ही मेरा भी।

कभी ऐसी बराबरी करके तो देखो,  

जैसा मैं चाहती हुँ।

फिर ज़िन्दगी में बराबरी भी आएगी।

और बहार भी,

फिर ना तुम्हें पुरुष होने का घमंड होगा।

ना मुझे स्त्री होने की कुंठा,

चैन की नींद सोना चाहती हुँ।

मैं बस अपना हक़ छीनना चाहती हुँ।।

                                   ऋतु लिम्बू