पहाड़ों की रानी दार्जिलिंग को मिली फिर इतराने की वजह
विश्व धरोहर दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की सेवा हुई शुरू
पूजा पर पर्यटकों को मिला उपहार, डेढ वर्ष शुरू हुई सेवा
हिलामय के खूबसूरत नजारों के बीच बसे दार्जिलिंग शहर और उसकी हसीन वांदियां जो पूर्वोत्तर का मुख्य पर्यटन का केन्द्र है। वहीं अंग्रेजी शासक ने अपने सुख सुविधा के लि शुरू किए गए रेल को अब विश्व धरोहर के रूप में जाना जाता है। पूर्वोत्तर के चिकननेक से शुरू होकर दार्जिलिंग की वादियों के खूबसूरत नजारों की सैर कराती हिमालय रेलवे की ट्वाय ट्रेन अब और आरामदाय रूप में ट्रैक पर उतरी है। एनएफ रेलवे ने पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए रुफटाप छत के कोच को शुरु किया है। जो पहाड़ों पर आसमान की बुलदिंयों के साथ स्लाइड डोर टी गार्डन, हरीभरी वादियों के नजारों को नयनों में कैद करने की अनूठा प्रयोग किया है। हलांकि सड़क, चाय बगान, पहाड़ों की उंची-उंची चोटियों के बीच से गुजरने वाली यह ट्रेन जब बाजारों से गुजरती तो तो नजारा कुछ और होता है। जो एक अनेखे सुखद का एहसास कराते हैं।
पवन शुक्ल, सिलीगुड़ी
मेरे सपनों की रानी कब आएगी चली आ तू चली आ..... फिल्म जगत के सुपरस्टार राजेश खन्ना ने इसी ट्वाय ट्रेन पर यह गाना सूट हुआ था। उसके बाद सूर्खियों आई इस ट्वाय ट्रेन को विश्व धरोहर का दर्जा प्राप्त हो गया। हलांकि दार्जिलिंग हिमालयी रेल (डीएचआर) को ट्वाय ट्रेन का नाम आज पूरी दुनियां में जाना जाता है। पश्चिम बंगाल में न्यू जलपाईगुड़ी और दार्जिलिंग के बीच चलने वाली एक छोटी लाइन की ट्रेन है। इस ट्रैक का निर्माण 1879 और 1881 के बीच किया गया, और इसकी कुल लंबाई 78 किलोमीटर (48 मील) है। हलांकि अक्सर पहाड़ों में होने वाली वर्षा के कारण ट्रैक पर मलवा आने से बंद हो जाता है। लेकिन एनएफ रेलवे ने करीब डेढ़ साल से बंद इस ट्वाय ट्रेन या ज्वाय राइड की सेवा बुधवार से बहाल की है। इसका औपचारिक शुभारंभ डीआएम कटिहार ने किया।
क्यों खास है ट्वाय ट्रेन
19वीं सदी में इस ट्रेन को सिर्फ आवागमन के लिए अंग्रेजों ने बनाया था। लेकिन भारत की आजादी के बाद यह ट्रेन जहां आवगन का साधन बनी, वहीं दार्जिलिंग जिले की खूबसूरत वादियों से होकर गुजरने वाली इस ट्रेन ने प्रकृति की हसीन नजारे लोगों को अपनी ओर खीचनें लगे। इस ट्रैक के लिए अनुमोदन प्राप्त मिला और तुरंत इसका निर्माण कार्य शुरू हुआ जो 1881 तक यह पूरा हो गया था। वर्ष 1878 में सिलीगुड़ी से स्टीम रेलवे के लिए एक विस्तृत प्रस्ताव इस ट्रेन की शुरूआत हुई। उस दौरान यह ट्रैक कलकत्ता से दार्जिलिंग तक जुड़ा हुआ था। भारत की आजादी के बाद 1958 दार्जिलिंग हिमलयन को को पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे का प्रबंधन सौंप दिया गया। वहीं पहाड़ों की रानी के सफर को और खुशगवार बनाने के लिए जुलाई 2005 में यूनेस्को ने इस विश्व धरोहर की उपाधी दे दी। बतासिया लूप इस टॉय ट्रेन राइड का सबसे खास आकर्षण कहा जा सकता है। ये घूम के थोड़ा नीचे है। यहां गोर्खा सिपाहियों के लिए मेमोरियल भी बनाया गया है जिन्होंने भारतीय सेना के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा दी। इस बतासिया लूप से एक तरफ दार्जीलिंग का खूबसूरत नजारा दिखाता है और दूसरी तरफ कंचनजंगा की पहाड़ियों को दिखाता है।
क्या है घुम
करीब लंबाई 78 किलोमीटर (48 मील) के सफर की ऊँचाई न्यू जलपाईगुड़ी में लगभग 100 मीटर (328 फीट) होती है लेकिन दार्जिलिंग तक इस ट्रेन को पहुंचने में करीब 2,200 मीटर (7,218 फुट) पर पहुंचकर बेहद रोमांचक नजारों को कैद करने के लिए हर आंखें बेकरार रहती है। कुर्सियांग-दार्जिलिंग वापसी सेवा और दार्जिलिंग से घुम (भारत का सबसे ऊँचा रेलवे स्टेशन) के बीच चलने वाली दैनिक पर्यटन गाड़ियों का परिचालन पुराने ब्रिटिश निर्मित बी श्रेणी के भाप इंजन, डीएचआर 778 द्वारा नियंत्रित किया जाता है। 13 मुख्य स्टेशनों में न्यू जलपाईगुड़ी, सिलीगुड़ी टाउन, सिलीगुड़ी जंक्शन, सुकना, रंगटंग, तिनधरिया, गयाबाड़ी, महानदी, कुर्सियांग, टुंग, सोनादा, घुम और दार्जिलिंग शामिल है।
पहाड की गोंद में बसे सुकना से शुरू होने वाले सफर से पल-पल नजारों की सौगात देखने को मिलती है। एक तरफ जहां वादियों की सैर से नैनों को सकूल मिलता है। वहीं जब ट्रेन देश के सबसे उंचे रेलवे स्टेशन घूम में पहुंचती है तो गर्मी में ठंडी का एहसास मन को सकून और दिन को तसल्ली मिलती है। सड़क बाजार और वादियों के बीच से गुजरने वाली दार्जिलिंग की हिमालयन रेलवे के ट्वाय ट्रेन का सफर तो रोमांचक है ही लेकिन पूर्वोत्तर के रेलवे के इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी है।