साधना की शख्सियत-30

न्‍यूज भारत, सिलीगुड़ी: गांव की गलियां हो या शहरों का चकाचौध सपनों के लिए लक्ष्‍य एक होना चाहिए। अगर लक्ष्‍य का संकल्‍प सपनों को पूरा करना है, तो जीवन की राह में आने वाली बाधाएं उसे पूरा करने से रोक नहीं सकती। इंसान जब सपनों की दुनियां में डूबता है और लक्ष्‍य एक हो तो कुछ पल के लिए सपनें अधूरे होते हैं, परंतु पूरे जरूर होते हैं। लक्ष्‍य की पूर्ती के लिए जिंदगी इम्‍तहान लेती, लक्ष्‍य की प्राप्ति का संकल्‍प अगर मन से हो पूरा अवश्‍य होता है। किसी भी लक्ष्‍य व सपनों पूरा करने के लिए मन की भावना को काव्‍य रचना का रूप देने के लिए ‘ साधना की शख्शियत’ की जरूरत होती है। आज की रचना का वास्‍तविक रूप समाज में देखने को मिलता है, वास्‍तव में ‘बाँझ’ शब्‍द किसी भी शादी-शुदा औरत को कितना तड़फाती है, यह उस औरत के दिल से पता चलता है।

 ‘’ मन की भावनाएं अनंनत है, गांव की गलियों में लड़कियों को सिर्फ पारिवारिक जिम्‍मेदारियों की शिक्षा दी जाती है। इससे इतर हट कर चलने वाली लड़कियों के लिए गांव की गलियां ठीक से नहीं भांति। बंगाल-बिहार की सीमाओं के बंधन में अधिकारी- खोरीबारी और बागडोगरा से शिक्षा ग्रहण करने के बाद लेखनी ने पत्रकारिता का शौक पूरा किया। पारिवारिक जिम्‍मेदारी और सरकारी स्‍कूल में नौकरी मिली तो व्‍यस्‍तता बढ़ गयी और जिंदगी घर परिवार और स्‍कूल तक सिमट गई। लेकिन वक्‍त ने कुछ ऐसा करवट लिया और सभी सपनों को ‘’खाक’’ कर दिया, दिल टूट गया, जिंदगी खाली-खाली सी लगने लगी। मुझे लगा बचपन के अूधूरे सपनों को पूरा करने का समय आ गया, दर्द को भूलकर अब जीवन के अधूरे सपनों को पूरी करने की कोशिश में जुट गयी, मंजिल कहां तक ले जाएगी पता नहीं पर कोशिशों का दौर जारी रहेगा। मैं आज दूसरी बार मेरी रचना ‘’बाँझ‘’ ‘साधना की शख्शियत’ में जगह मिली है, उम्‍मीद है अपनों की सलाह मंजिल की ओर लेकर जाएगी- बिंदु अग्रवाल, गलगलिया

बाँझ

उसका भी तो हृदय मचलता होगा, तरसती होगी बाहें

कोई नन्हें-नन्हे होटो से उसे, माँ कह कर बुलाये।

चूमे उसके गालो को,उसके बालों से खेले,

पकड़ के उसका आँचल, आगे पीछे डोले।

क्यूँ उसके दर्द को भूल ऐ दुनियां, बाँझ उसे कह जाती है,

इतना कठोर,निर्मम शब्द यह, अंतर छलनी कर जाती है।

कहाँ है गलती उसकी इसमे,माँ नही बन पाई।

तड़पती उसकी अंतर आत्मा ,देती हरदम दुहाई।

पुरुषों को जग कुछ नही कहता, क्यों मौन बना रह जाता है।

पिता नही बन पाया वह भी, पैतृक सुख से वंचित रह जाता है।

अपने इस आजीवन दुःख को, औरत कैसे सहती है।

सुनकर बाँझ शब्द का ताना, सौ सौ बार वह मरती है।

उसकी ब्यथा को समझ न पाया, कोई इस संसार मे,

बाँझ बाँझ सब्द रह रह गूंजे, उसकी सांसो के हर

तार में।