समाज में जब भी कोई अपराध होता है, तो नज़रें अक्सर पुरुषों की ओर उठती हैं। लेकिन जब वही हिंसा, वही छल, वही अमानवीयता किसी महिला द्वारा की जाती है, तो समाज कुछ क्षण के लिए स्तब्ध रह जाता है। क्या पीड़िता बनने की पीड़ा ही कभी किसी को अपराधी बनने की ओर ले जाती है? क्या बदलते सामाजिक ढाँचे ने स्त्रियों की संवेदनाओं को भी कठोर बना दिया है? अर्चना शर्मा की यह कविता "आख़िर क्यों" इन्हीं सवालों से जूझती है—ना सिर्फ़ जवाब ढूंढती है, बल्कि पाठक के मन में गूंजती एक गहरी चुप्पी भी छोड़ जाती है।
आखिर क्यों?
पिछली कई वारदातें,
मन को दहलाती है।
स्त्रियों के सम्मान को गिराती है।
कभी नीला ड्रम सीमेंट,
तो कहीं सांप का जहर।
कहीं हथौड़े की मार,
तो कहीं हनीमून कहर।
क्यों अपने मर्यादा से,
गिर रही है नारी?
कभी कहते थे जिन्हें
हम अबला बेचारी।
वो बन हत्यारिन
मां की कोख उजाड़ रही।
प्यार के दलदल में फंस,
घरों को बर्बाद कर रही।
कैसे कहें, नारी तुम श्रद्धा हो?
कैसे कहें, यत्र नारियस्तु पूज्यतें?
क्यों यह बदलाव,
क्यों यह ठहराव?
स्तब्ध है लोग आज!